किसी बलिदानी महिला से कम नहीं थी गुणी चाची, जिसकी पीड़ा को लोगों ने समय-समय पर गीत कहा   

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    किसी बलिदानी महिला से कम नहीं थी गुणी चाची, जिसकी पीड़ा को लोगों ने समय-समय पर गीत कहा  
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    चाची की उम्र बमुश्किल 13/14 साल रही होगी, जब उसका विवाह हो गया था। नाम तो गुणी देवी रहा होगा लेकिन बोलचाल में घुणी देवी हो गया। गांव इलाके में वह घुणी, घुणी चाची, घुणी दादी, घुणी पुफू, घुणी बुडी के नाम से ही पुकारी जाती थी।

    परिवारजन बताते हैं कि जेठ के महीने चाची की शादी हुई थी और अगले चैत के महीने चाचा जी का देहांत हो गया। बहुत कुरुष संसार था वह। बाल- विवाह और पति की मृत्यु के बाद जीवन भर का वैधव्य जीवन ! किसी भी त्रासदी से कम नहीं।

    हमारे ही गांव की एक दादी जब ब्याह कर आयी थी तो 09 वर्ष की थी बाल उम्र में ही विधवा हो चुकी थी। भरे- पूरे परिवार की होने के कारण जीवन भर मान सम्मान मिला हो, लेकिन संपूर्ण जिंदगी वैधव्य की यातना में काटनी पड़ी।

    निकटवर्ती गांव की ही नाते की पूफू जो स्कूल की ‘शिशु माता’ के नाम से भी जानी जाती थी, बताते हैं कि वह भी 11 वर्ष की विधवा हो चुकी थी और अत्यंत दयनीय स्थिति में उन्होंने अपना जीवन गुजारा, जो कि हमने अपनी आंखों से भी देखा।

    बताते हैं कि 71/ 72 साल पहले जब चाची का विवाह हुआ तो चाची उस समय लगभग नादान थी। पति की मृत्यु के समय वह मायके में थी और जब संदेश प्राप्त हुआ तो उसे इतना भी ज्ञान नहीं था कि परिवार जन क्यों रो रहे हैं !

    संपूर्ण जीवन ससुराल में काटा। भूख, गरीबी, मानसिक वेदना मे जिंदगी गुजरी। फिर कुछ कहते हैं कि वह बहुत अच्छा समय था! मेरी दृष्टि में वह पापी संसार था। बचपन में ही बच्चियों को स्त्रीत्व की बेड़ियों में जकड़ कर, उसकी नारकीय दशा को देखने के लिए तथाकथित परिवार की इज्जत के कारण, समाज तमाशबीन बना रहता था।

    ‘जाके पांव न पड़ी बिंवाई/ वो क्या जाने पीर पराई’। भुगतना तो उसी को पड़ता है जिस पर बीतती है। वरना  समाज में यदा-कदा ही कभी विरोध के स्वर उत्पन्न हुए हों।

    कल लगभग 85 वर्ष की उम्र में चाची का दाह- संस्कार कर वापिस लौटे। शमशान का दृश्य आंखों के सामने सब कुछ बयां कर रहा था। चाची के पार्थिव शरीर को जलाते हुए आग की लपटें उसके पावन देह को भस्म करती गंगाजी की पवित्र लहरों के बीच विलीन होती जा रही थी। स्वर्गाश्रम भी भावनाएं भी आंसुओं से करुण कथा कह रही थी। मुझे कभी-कभी चाची को देखकर

    अनायास ही अपनी स्वरचित कविता की पंक्तियां याद आ जाती हैं-
     तेरी पीड़ा को लोगों ने समय-समय पर गीत कहा/ तेरे क्रंदन को लोगों ने मधुर गीत का नाम दिया।”

    चाची के विवाह के आठ-नौ वर्ष उपरांत मेरा जन्म हुआ होगा लेकिन सन 1965 के बाद से एक-एक पल चाची की करुणामयी आकृति का साक्षी रहा। सन 1973 में भाई के साथ में चाची के मायके गया था और कई दिन तक हम उनके मायके में रहे। सन 1976 में मेरी दादी की मृत्यु हुई। मां- पिताजी गांव आ गए थे और मैं अकेला अपने छानी में था। चैन-पशुओं की देखरेख करने के लिए चाची छानी में आई थी। मेरा स्वास्थ्य ठीक उन दिनों ठीक नहीं था। ज्वर कारण शरीर दर्द से टूट रहा था। उस समय मेरी उम्र 13 साल की थी। दिनभर चाची मवेशियों की देखरेख करते हुए मेरे शरीर को दबाती रही। उसके पावन हाथों के स्पर्श से मेरी पीड़ा जाती रही। ज्वर उतर गया और जो हफ्तेभर से मैं बीमार था उसके वरदानी हाथों के  स्पर्श मात्र से ही मैं स्वस्थ हो गया। उस ममतायी मातृ स्वरूपा चाची की करुणामयी स्मृति को मैं कभी नहीं भूल पाऊंगा।

    चाची एक तपस्नी थी। उसके तप के कारण हमारा क्षेत्र हमेशा ही प्रकाशमान रहेगा। आजीवन वह तपस्वनी दिए की लौ की भांति तिल- तिल कर जलती रही। अपनी वेदना का एहसास किसी को नहीं करवाया। यह हमारे परिवार की विशेषता रही है कि सभी लोग चाची का आदर करते हुए वांछित मदद भी करते थे।

    यह भी इत्तेफाक  की बात यह है कि बहत्तर साल पहले ब्याह कर वह जिस घर में आई थी, वह जीर्ण- शीर्ण  मकान टूट जाने के बाद, भाइयों ने बगल में ही सुंदर घर बनाया। कुछ समय चाची वहां पर रही लेकिन पुनः उसी स्थान पर कुटिया बन जाने के बाद मात्र तीन महीने अपनी कुटी से ही उसने महाप्रयाण किया।

    छोटे भाई को चाची बहुत ही स्नेह करती थी और हर समय उसकी जुबान पर उनका नाम रहता था। संजोग की बात है कि 5-6 दिन पहले ही भाई देहरादून से गांव आये थे। चाची की अंतिम विदाई के बाद, चाची के क्रिया कर्म करने का सौभाग्य भी उन्हें ही प्राप्त हुआ। जब तक जीवन रहेगा चाची की मधुर स्मृतियां सागर की लहरों की तरह मानस पट पर उद्वेलित होती रहेंगी। उसकी याद आती रहेगी। उसका आशीर्वाद हमारे लिए किसी सौभाग्य से कम नहीं है लेकिन जीवनभर उसने जो सामाजिक वर्जनाएं और कष्ट सहा, उसका खेद है।

    आज समाज में काफी परिवर्तन हो चुका है। अब दकियानूसी विचारों के लिए कोई स्थान नहीं है। मैं चाची को किसी बलिदानी महिला से कम नहीं समझता। उसका महा बलिदान मेरे गांव, क्षेत्र में सदैव अमर रहेगा। विनम्र श्रद्धांजलि के साथ ईश्वर से प्रार्थना है कि अपने श्री चरणों में उस दिव्यात्मा को स्थान दें।

    कवि:सोमवारी लाल सकलानी’निशांत’ हवेली (सकलाना) जौनपुर, टिहरी गढ़वाल।