अंग्रेजी शासन में देशवासी अंग्रेजों के साथ-साथ उनकी शह पर पलने वाले सामंतों के शोषण से भी त्रस्त थे। वनों और पर्वतों में रहने वाले सरल स्वभाव के निर्धन किसान, श्रमिक, वनवासी तथा गिरिवासी इस शोषण के सबसे अधिक शिकार होते थे।
राजस्थान में गोविन्द गुरु ने धार्मिक कार्यक्रमों के माध्यम से इन्हें जाग्रत करने का सफल आंदोलन चलाया। उनके प्रयास से भील, मीणा तथा गरासिया जैसी वनवासी जातियां सामाजिक रूप से जागरूक हुईं। उनके बाद इस चिन्गारी को श्री मोतीलाल तेजावत ने ज्वाला बना दिया ।
कोल्यारी गांव में जन्मे श्री मोतीलाल तेजावत झाडोल ठिकाने के कामदार थे। उन्होंने वनवासियों पर हो रहे अत्याचारों को निकट से देखा। जमींदारों द्वारा इनकी पकी फसल को कटवा लेना, बेगार लेना, दुधारू पशुओं को उठा लेना तथा छोटी सी भूल पर कोड़ों से पिटवाना आदि उन दिनों सामान्य सी बात थी। कोढ़ में खाज की तरह वनवासी समाज अनेक सामाजिक कुरीतियों से भी ग्रस्त था। यह देखकर श्री तेजावत का मन विचलित हो उठा।
1907 में श्री मोतीलाल तेजावत ने झाडोल के राव साहब की नौकरी छोड़कर वनवासियों में जागृति का अभियान छेड़ दिया। उनके गांवों में जाकर वे उन्हें आपस में मिलकर रहने तथा अत्याचारों का विरोध करने की बात समझाने लगे।
धीरे-धीरे यह अभियान ‘एकी आंदोलन’ के नाम से प्रसिद्ध हो गया। मगरा के भीलों से प्रारम्भ होकर यह अभियान क्रमशः भोभट, अलसीगढ़, पांडोली, कपासन, उपरला व निचला गिरवा, डूंगरपुर, दांता, पालनपुर, ईडर, सिरोही, बांसवाड़ा, विजयनगर आदि क्षेत्रों में जोर पकड़ने लगा।
1921 ई0 में देश भर में हुए असहयोग आंदोलन में भी श्री तेजावत तथा उनके साथियों ने भाग लिया। उनका नियमित सम्पर्क देश के अन्य भागों में चल रही स्वाधीनता की गतिविधियों से भी बना हुआ था। श्री तेजावत के प्रयासों से स्थान-स्थान पर वनवासियों के विशाल सम्मेलन होने लगे। उन्होंने बेगार तथा लगान न देने की घोषणा कर दी। इससे अंग्रेजों की नींद हराम हो गयी।
छह मार्च, 1922 को विजयनगर राज्य के नीमड़ा गांव में भीलों का एक विशाल सम्मेलन आयोजित किया गया। अंग्रेजों ने लोगों को डराने के लिए अपनी सेनाएं भेज दीं; पर महाराणा प्रताप के मतवाले सहयोगी भला किससे डरने वाले थे ? वे बड़ी संख्या में नीमड़ा पहुंचने लगे। नीमड़ा गांव पहाडि़यों से घिरा हुआ था। अंग्रेजों ने वहां अपनी मशीनगनें तैनात कर दीं।
एकलिंग नाथ की जय तथा मोती बाबा की जय के साथ सम्मेलन प्रारम्भ हो गया। अंग्रेज अधिकारियों ने वनवासियों के कुछ प्रमुखों को एक ओर बुलाकर वार्ता में उलझा लिया। इसी बीच गोलीवर्षा होने लगी। देखते ही देखते 1,200 निहत्थे वनवासी मारे गये।
श्री तेजावत के पैर में भी गोली लगी; पर उनके साथी उन्हें किसी सुरक्षित स्थान पर ले गये। अगले आठ वर्ष वे भूमिगत रहकर काम करते रहे। 1929 में गांधी जी के कहने पर उन्होंने आत्मसमर्पण कर दिया। 1929 से 1936 तथा 1944 से 1946 तक वे कारावास में रहे।
1947 के बाद भी वे वनवासियों में व्याप्त कुरीतियों के उन्मूलन के काम में ही लगे रहे। पांच दिसम्बर, 1963 को उनका निधन हुआ। जलियांवाला बाग कांड से भी बड़े इस कांड की चर्चा प्रायः राष्ट्रीय स्तर पर नहीं होती, क्योंकि इसमें मरने वाले अधिकांश निर्धन वनवासी थे। वहां के पेड़ों पर गोलियों के निशान आज भी इस नरसंहार की कहानी कहते हैं। (संदर्भ : पाथेय कण, 1.3.2008)
6 मार्च/बलिदान दिवस: धर्मवीर पण्डित लेखराम
हिन्दू धर्म के प्रति अनन्य निष्ठा रखकर धर्म प्रचार में अपना जीवन समर्पण करने वाले धर्मवीर पंडित लेखराम का जन्म अविभाजित भारत के ग्राम सैयदपुर (तहसील चकवाल, जिला झेलम, पंजाब) में मेहता तारासिंह के घर आठ चैत्र, वि0सं0 1915 को हुआ था। बाल्यकाल में उनका अध्ययन उर्दू एवं फारसी में हुआ; क्योंकि उस समय राजकाज एवं शिक्षा की भाषा यही थी।
17 वर्ष की अवस्था में वे पुलिस में भर्ती हो गये; पर कुछ समय बाद उनका झुकाव आर्य समाज की ओर हो गया। वे एक माह का अवकाश लेकर ऋषि दयानन्द जी से मिलने अजमेर चले गये। वहाँ उनकी सभी जिज्ञासाएँ शान्त हुईं। लौटकर उन्होंने पेशावर में आर्य समाज की स्थापना की और धर्म-प्रचार में लग गये। धीरे-धीरे वे ‘आर्य मुसाफिर’ के नाम से प्रसिद्ध हो गये।
पंडित लेखराम ने ‘धर्मोपदेश’ नामक एक उर्दू मासिक पत्र निकाला। उच्च कोटि की सामग्री के कारण कुछ समय में ही वह प्रसिद्ध हो गया। उन दिनों पंजाब में अहमदिया नामक एक नया मुस्लिम सम्प्रदाय फैल रहा था। इसके संस्थापक मिर्जा गुलाम अहमद स्वयं को पैगम्बर बताते थे। पण्डित लेखराम ने अपने पत्र में इनकी वास्तविकता जनता के सम्मुख रखी। इस बारे में उन्होंने अनेक पुस्तकें भी लिखीं। इससे मुसलमान उनके विरुद्ध हो गये।
महर्षि दयानन्द जी के देहान्त के बाद पंडित लेखराम को लगा कि सरकारी नौकरी और धर्म प्रचार साथ-साथ नहीं चल सकता। अतः उन्होंने नौकरी छोड़ दी। जब पंजाब में आर्य प्रतिनिधि सभा का गठन हुआ, तो वे उसके उपदेशक बन गये। इस नाते उन्हें अनेक स्थानों पर प्रवास करने तथा पूरे पंजाब को अपने शिकंजे में जकड़ रहे इस्लाम को समझने का अवसर मिला।
लेखराम जी एक श्रेष्ठ लेखक थे। आर्य प्रतिनिधि सभा ने ऋषि दयानन्द के जीवन पर एक विस्तृत एवं प्रामाणिक ग्रन्थ तैयार करने की योजना बनायी। यह दायित्व उन्हें ही दिया गया। उन्होंने देश भर में भ्रमण कर अनेक भाषाओं में प्रकाशित सामग्री एकत्रित की। इसके बाद वे लाहौर में बैठकर इस ग्रन्थ को लिखना चाहते थे; पर दुर्भाग्यवश यह कार्य पूरा नहीं हो सका।
पंडित लेखराम की यह विशेषता थी कि जहाँ उनकी आवश्यकता लोग अनुभव करते, वे कठिनाई की चिन्ता किये बिना वहाँ पहुँच जाते थे। एक बार उन्हें पता लगा कि पटियाला जिले के पायल गाँव का एक व्यक्ति हिन्दू धर्म छोड़ रहा है। वे तुरन्त रेल में बैठकर उधर चल दिये; पर जिस गाड़ी में वह बैठे, वह पायल नहीं रुकती थी। इसलिए जैसे ही पायल स्टेशन आया, लेखराम जी गाड़ी से कूद पड़े। उन्हें बहुत चोट आयी। जब उस व्यक्ति ने पंडित लेखराम जी का यह समर्पण देखा, तो उसने धर्मत्याग का विचार ही त्याग दिया।
उनके इन कार्यों से मुसलमान बहुत नाराज हो रहे थे। छह मार्च, 1897 की एक शाम जब वे लाहौर में लेखन से निवृत्त होकर उठे, तो एक मुसलमान ने उन्हें छुरे से बुरी तरह घायल कर दिया। उन्हें तुरन्त अस्पताल पहुँचाया गया; पर उन्हंे बचाया नहीं जा सका।
मृत्यु से पूर्व उन्होंने कार्यकत्र्ताओं को सन्देश दिया कि आर्य समाज में तहरीर (लेखन) और तकरीर (प्रवचन) का काम बन्द नहीं होना चाहिए। धर्म और सत्य के लिए बलिदान होने वाले पण्डित लेखराम ‘आर्य मुसाफिर’ जैसे महापुरुष मानवता के प्रकाश स्तम्भ हैं।
सरहद का साक्षी @*महावीर प्रसाद सिघंल