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18 जनवरी/जन्मदिन /पुण्य तिथि विशेष: अनुशासन प्रिय महादेव गोविन्द रानाडे, ममतामयी उषा दीदी, पुण्य-तिथि:  आत्मजागरण के पुरोधा दादा लेखराज, मिलनसार भंवरसिंह शेखावत, शिल्पी बाल आप्टे

केदार सिंह चौहान 'प्रवर' by केदार सिंह चौहान 'प्रवर'
जनवरी 18, 2022
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अनुशासन प्रिय महादेव गोविन्द रानाडे

सामान्यतः नेता या बड़े लोग दूसरों को तो अनुशासन की शिक्षा देते हैं; पर वे स्वयं इसका पालन नहीं करते। वे सोचते हैं कि अनुशासन का पालन करना दूसरों का काम है और वे इससे ऊपर हैं; पर 18 जनवरी, 1842 को महाराष्ट्र के एक गाँव निफड़ में जन्मे श्री महादेव गोविन्द रानाडे इसके अपवाद थे।

 सरहद का साक्षी @महावीर प्रसाद सिघंल 

उन्होंने भारत की स्वतन्त्रता के आन्दोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया। इसके साथ ही समाज सुधार उनकी चिन्ता का मुख्य विषय था।

एक बार उन्हें पुणे के न्यू इंग्लिश स्कूल के वार्षिकोत्सव समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में शामिल होना था। आमन्त्रित अतिथियों को यथास्थान बैठाने के लिए द्वार पर कुछ कार्यकर्त्ता तैनात थे। उन्हें निर्देश था कि बिना निमन्त्रण पत्र के किसी को अन्दर न आने दें।

श्री रानाडे का नाम तो निमन्त्रण पत्र पर छपा था; पर उनके पास उस समय वह निमन्त्रण पत्र नहीं था। द्वार पर तैनात वह कार्यकर्त्ता उन्हें पहचानता नहीं था। इसलिए उसने श्री रानाडे को नियमानुसार प्रवेश नहीं दिया। श्री रानाडे ने इस बात का बुरा नहीं माना, वे बोले – बेटे, मेरे पास तो निमन्त्रण पत्र नहीं है। इतना कहकर वे सहज भाव से द्वार के पास ही खड़े हो गये।

थोड़ी देर में कार्यक्रम के आयोजकों की दृष्टि उन पर पड़े। वे दौड़कर आये और उस कार्यकर्ता को डाँटने लगे। इस पर वह कार्यकर्त्ता आयोजकों से ही भिड़ गया। उसने कहा कि आप लोगों ने ही मुझे यह काम सौंपा है और आप ही नियम तोड़ रहे हैं, ऐसे में मैं अपना कर्त्तव्य कैसे पूरा करूँगा। कोई भी अतिथि हो; पर नियमानुसार उस पर निमन्त्रण पत्र तो होना ही चाहिए।

आयोजक लोग उसे आवश्यकता से अधिक बोलता देख नाराज होने लगे; पर श्री रानाडे ने उन्हें शान्त कराया और उसकी अनुशासनप्रियता की सार्वजनिक रूप से अपने भाषण में प्रशंसा की। उन्होंने कहा कि आज ऐसे ही अनुशासनप्रिय लोगों की आवश्यकता है। यदि सभी भारतवासी अनुशासन का पालन करें, तो हमें स्वतन्त्रता भी शीघ्र मिल सकती है और उसके बाद देश की प्रगति भी तेजी से होगी। इतना ही नहीं, कार्यक्रम समाप्ति के बाद उन्होंने उस कार्यकर्ता की पीठ थपथपा कर उसे शाबासी दी। वह कार्यकर्ता आगे चलकर भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन में सक्रिय हुआ। उसका नाम था गोपाल कृष्ण गोखले।

श्री रानाडे में अनुशासन, देशप्रेम व चारि×य के ऐसे सुसंस्कार उनके परिवार से ही आये थे। उनका परिवार परम्परावादी था; पर श्री रानाडे खुले विचारों के होने के कारण प्रार्थना समाज के सम्पर्क में आये और फिर उसके सक्रिय कार्यकर्ता बन गये।

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इस नाते उन्होंने हिन्दू समाज और विशेषकर महाराष्ट्रीय परिवारों में व्याप्त कुरीतियों पर चोट की और समाज सुधार के प्रयास किये। उनका मत था कि स्वतन्त्र होने के बाद देश का सामाजिक रूप से सबल होना भी उतना ही आवश्यक है, जितना आर्थिक रूप से। इसलिए वे समाज सुधार की प्रक्रिया में लगे रहे।

इस काम में उन्हें समाज के अनेक वर्गों का विरोध सहना पड़ा; पर वे विचलित नहीं हुए। उनका मानना था कि सामाजिक रूढ़ियों को तोड़ने की पहल जो भी करेगा, उसे घर-परिवार तथा समाज के स्थापित लोगों से संघर्ष मोल लेना ही होगा। इसलिए इस प्रकार की मानसिकता बनाकर ही वे इस काम में लगे। इसीलिए आज भी उन्हें याद किया जाता है।

पुण्य-तिथि:  आत्मजागरण के पुरोधा दादा लेखराज

इस जगत् में अपने लिए तो सब ही जीते हैं; पर अमर वही होते हैं, जो निजी जीवन की अपेक्षा सामाजिक जीवन को अधिक महत्त्व देते हैं। 1876 में सिन्ध प्रान्त (वर्त्तमान पाकिस्तान) के एक सम्भ्रात परिवार में जन्मे श्री लेखराज ऐसे ही एक महामानव थे, जिन्होंने आगे चलकर ब्रह्मकुमारी नामक एक महान आध्यात्मिक आन्दोलन की स्थापना की।

आत्मजागरण के पुरोधा दादा लेखराज

लेखराज जी का बचपन से ही अध्यात्म की ओर आकर्षण था। इसलिए लोग इन्हें दादा (बड़ा भाई) कहने लगे। बालपन में ही पिताजी का देहान्त हो जाने से इन्हें छोटी अवस्था में ही कारोबार करना पड़ा। इन्होंने हीरे-जवाहरात का व्यापार किया। मधुर स्वभाव और प्रामाणिकता के कारण इनका व्यापार कुछ ही समय में भारत के साथ विदेशों में भी फैल गया।

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पर इसके साथ ही इनके मन में यह चिन्तन भी चलता रहता था कि व्यक्ति को कष्ट क्यों होते हैं तथा वह इन कष्टों और निर्धनता से कैसे मुक्त हो सकता है ? इसके लिए उन्होंने अपने जीवन में 12 गुरुओं का आश्रय लिया; पर इन्हें किसी से आत्मिक सन्तुष्टि नहीं मिली। 60 वर्ष की अवस्था में वाराणसी में अपने एक मित्र के घर पर इन्हें कुछ विशिष्ट आध्यात्मिक अनुभूतियाँ हुईं, जिससे इनके जीवन में आमूल-चूल परिवर्तन हो गया।

दादा लेखराज ने देखा कि इस कलियुगी दुनिया का महाविनाश होने वाला है और इसमें से ही एक नयी दुनिया का निर्माण होगा। उन्हें ऐसा लगा मानो उनके तन और मन में ईश्वरीय शक्ति का आगमन हुआ है। उस शक्ति ने दादा को उनके अतीत और आदिकाल के संस्मरण सुनाए। इस परमशक्ति ने उन्हें ही नयी दुनिया के निर्माण के लिए केन्द्र बिन्दु बनने को कहा तथा उनका नाम बदल कर प्रजापिता ब्रह्मा रख दिया। उस शक्ति ने इस काम में नारी शक्ति को आगे रखने का भी आदेश दिया।

अब दादा ने उस परमसत्ता का आदेश मानकर काम शुरू कर दिया। इसके लिए उन्होंने ‘ओम मण्डली’ का गठन किया। ईश्वरीय शक्ति ने उनकी सभी उलझनों को मिटा दिया था। नारियाँ स्वभाव से कोमल होती हैं। दादा ने उन्हें भौतिक विद्याओं से दूर हटाकर राजयोग की शिक्षा दी। इससे उनमें छिपी शक्तियाँ उजागर होने लगीं। दादा ने किसी धर्म या पन्थ का विरोध न करते हुए सबको अध्यात्म और सत्य का सरल ज्ञान कराया। इससे आसुरी शक्तियों का शमन होकर दैवी शक्तियों का जागरण हुआ।

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दादा की मान्यता थी कि स्व परिवर्तन से ही विश्व में परिवर्तन होगा। जब यह काम प्रारम्भ हुआ, तो दादा को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। इस संस्था में महिलाएँ अधिक सक्रियता से जुड़ीं, अतः दादा पर अनेक ला॰छन लगाये गये; पर वे इन सबकी चिन्ता न करते हुए अपने काम में लगे रहे। वस्तुतः उन्होंने हीरे जवाहरात के व्यापार के बदले मनुष्यों के अन्दर छिपे गुणों को सामने लाने का महत्वपूर्ण कार्य संभाल लिया था।

1947 में देश विभाजन के बाद दादा ने राजस्थान में आबू पर्वत को अपनी गतिविधियोें का केन्द्र बनाया। यहीं ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय जैसी संस्था का जन्म हुआ। श्वेत वस्त्रधारी बाल ब्रह्मचारी बहिनों को आगे रखकर चलने वाली यह संस्था आज विश्व के 130 देशों में काम कर रही है। 18 जनवरी, 1969 को दादा लेखराज ने अपनी देहलीला समेट ली; पर उनके अनुयायी उनकी दैवी उपस्थिति सब जगह अनुभव करते हैं।

जन्म-दिवस: ममतामयी उषा दीदी

मां का हृदय सदा ही ममता से भरा होता है; पर अपने बच्चों के साथ अन्य बच्चों को भी वैसा ही स्नेह प्रेम देने वाली उषा दीदी का जन्म 18 जनवरी, 1930 में आगरा में अत्यधिक सम्पन्न परिवार में हुआ था। सात भाइयों के बीच इकलौती बहिन होने के कारण उन्हें घर में खूब प्रेम मिला। उनके बड़े भाई श्री अशोक सिंहल ‘विश्व हिन्दू परिषद’ के अध्यक्ष हैं। श्री अशोक जी की ही तरह उषा जी भी एक सुकंठ गायक थीं।

अशोक जी के कारण घर में संघ के विचारों का भी प्रवेश हुआ, जिसका प्रभाव उषा जी पर भी पड़ा। विवाह के बाद 1964 में गृहस्थ जीवन के दायित्वों के बावजूद मा0 रज्जू भैया के आग्रह पर वे विश्व हिन्दू परिषद के महिला विभाग से सक्रियता से जुड़ गयीं। उन्होंने अपने बच्चों को भी हिन्दुत्व के प्रति प्रेम और समाज सेवा के संस्कार दिये। मुंबई में 1968 में जब मारीशस के छात्रों के लिए संस्कार केन्द्र खोला गया, तो उसकी देखभाल उन्होेंने मां की तरह की।

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कुछ समय बाद वे विश्व हिन्दू परिषद के काम के लिए प्रवास भी करने लगीं। प्रवासी जीवन बहुत कठिन है। वे इसकी अभ्यासी नहीं थीं; पर जिम्मेदारी स्वीकार करने के बाद उन्होंने कष्टों की चिन्ता नहीं की। कभी कार से नीचे पैर न रखने वाली उषा दीदी गली-मोहल्लों में कार्यकर्ताओं से मिलने पैदल और रिक्शा पर भी घूमीं। उ0प्र0, म0प्र0, राजस्थान और दिल्ली में उन्होंने महिला संगठन को मजबूत आधार प्रदान किया। महिलाओं को संगठित करने के लिए बने ‘मातृशक्ति सेवा न्यास’ के गठन में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी।

1979 में प्रयागराज में हुए द्वितीय विश्व हिन्दू सम्मेलन तथा 1987 में आगरा में हिन्दीभाषी क्षेत्र की महिलाओं के अभ्यास वर्ग के लिए उन्होेंने घोर परिश्रम किया। 1989 में प्रयागराज में संगम तट पर आयोजित तृतीय धर्म संसद में श्रीराम शिला पूजन कार्यक्रम की घोषणा हुई थी। उसकी तैयारी के लिए उषा दीदी एक महीने तक प्रयाग में रहीं और कार्यक्रम को सफल बनाया। 1984 में श्रीराम जन्मभूमि पर पहली पुस्तक भी उन्होंने ही लिखी।

1994 में दिल्ली में महिला विभाग का राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ। उसके लिए धन संग्रह की पूरी जिम्मेदारी उन्होेंने निभाई और 45 लाख रु0 एकत्र किये। ‘साध्वी शक्ति परिषद’ के सहòचंडी यज्ञ की पूरी आर्थिक व्यवस्था भी उन्होंने ही की। उनके समृद्ध मायके और ससुराल पक्ष की पूरे देश में पहचान थी। इस नाते वे जिस धनपति से जो मांगती, वह सहर्ष देता था। इसके साथ ही वे यह भी ध्यान रखती थीं कि धन संग्रह, उसका खर्च तथा हिसाब-किताब संगठन की रीति-नीति के अनुकूल समय से पूरा हो।

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उषा दीदी तन, मन और धन से पूरी तरह हिन्दुत्व को समर्पित थीं। संघ के प्रचारकों तथा विश्व हिन्दू परिषद के पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं को वे मां और बहिन जैसा प्यार और सम्मान देती थीं। संगठन के हर आह्नान और चुनौती को उन्होेंने स्वीकार किया। 1990 और फिर 1992 की कारसेवा के लिए उन्होेंने महिलाओं को तैयार किया और स्वयं भी अयोध्या में उपस्थित रहीं।

अनुशासनप्रिय उषा दीदी परिषद की प्रत्येक बैठक में उपस्थित रहती थीं। चुनौतीपूर्ण कार्य को स्वीकार कर, उसके लिए योजना निर्माण, प्रवास, परिश्रम, सूझबूझ और समन्वय उनकी कार्यशैली के हिस्से थे। इसलिए संगठन ने उन्हें जो काम दिया, उसे उन्होंने शत-प्रतिशत सफल कर दिखाया।

40 वर्ष तक परिषद के काम में सक्रिय रही उषा दीदी का 19 नवम्बर, 2010 को दिल्ली में 81 वर्ष की आयु में देहांत हुआ।

जन्म-दिवस: हंसमुख व मिलनसार भंवरसिंह शेखावत

श्री भंवरसिंह शेखावत का जन्म 18 जनवरी, 1923 को ग्राम चिराणा (जिला झुंझनू, राजस्थान) में हुआ था। वे 1944 में स्वयंसेवक और 1946 में प्रचारक बने। वे अपने माता-पिता की अकेली संतान थे। उनके पिताजी पहले जयपुर राज्य की सेना में थे। इसके बाद वे सरकारी सेवा में आ गये।

उनके प्रचारक बनने से अभिभावकों को बहुत कष्ट हुआ। वे अपनी माताजी से कहते थे कि तुम्हारा एक पुत्र देश की सेवा में गया है, तो तुम्हारी सेवा के लिए भगवान तुम्हें दूसरा पुत्र देगा। और सचमुच उनकी वाणी सत्य हुई। उनके जन्म के 23 वर्ष बाद उनके छोटे भाई गुमान सिंह का जन्म हुआ।

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भंवरसिंह जी 1946 से 1959 तक राजस्थान में कई स्थानों पर जिला प्रचारक रहे। इस बीच संघ पर प्रतिबन्ध लगने से सभी कार्यकर्ताओं को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। प्रतिबंध समाप्ति के बाद भी उन समस्याओं का अंत नहीं हुआ; पर भंवरसिंह जी धैर्यपूर्वक कार्यक्षेत्र में डटे रहे। वे 1959 से 76 तक बीकानेर, अजमेर तथा एक बार फिर बीकानेर विभाग प्रचारक रहे। 1976 से 1983 तक उन पर प्रांत व्यवस्था प्रमुख का दायित्व रहा।

व्यवस्था प्रमुख रहते हुए उनकी देखरेख में जयपुर में प्रांत कार्यालय ‘भारती भवन’ का निर्माण हुआ। जब कन्याकुमारी में श्री एकनाथ जी के नेतृत्व में विवेकानंद शिला स्मारक का निर्माण हुआ, तो राजस्थान में भंवरसिंह जी उस अभियान के संगठन मंत्री रहे। उनके नेतृत्व में पूरे प्रान्त से साढ़े छह लाख रु. एकत्र हुए, जिसमें एक लाख से अधिक का योगदान राजस्थान सरकार का था। इसके लिए बनी समिति में उन्होंने अनेक प्रभावी व प्रतिष्ठित लोगों को जोड़ा। राजस्थान विश्वविद्यालय के उपकुलपति डा0 मथुराप्रसाद शर्मा तथा शिक्षा मंत्री श्री शिवचरण लाल माथुर को उन्होंने समिति का अध्यक्ष बनाया।

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राजस्थान में शेखावटी के व्यापारियों ने देश भर में अपनी कारोबार क्षमता की धाक जमाई है। बिड़ला, डालमिया, सिंघानिया आदि यहीं के मूल निवासी हैं। जब ये सेठ अपने गांव आते थे, तो भंवरसिंह जी उन्हें अपने गांव का विकास करने तथा उनकी आर्थिक सामर्थ्य को देशहित में मोड़ने का प्रयास करते थे। वे उन सेठों की सम्पत्ति की देखभाल करने वालों से भी संपर्क रखते थे।

उन दिनों सेठ बिड़ला द्वारा पिलानी में स्थापित तकनीकी कॉलिज (बिट्स) में पूरे देश से छात्र आते थे। भंवरसिंह जी ने वहां शाखा चलाकर उनमें से कई को प्रचारक बनाया, जो राजस्थान के साथ ही अन्य प्रान्तों में भी गये। उनके समय के कई कार्यकर्ता आगे चलकर सार्वजनिक क्षेत्र में बड़े प्रसिद्ध हुए।

शेखावटी क्षेत्र में नाथ सम्प्रदाय के सन्तों का बड़ा प्रभाव है। इनसे वे नियमित संपर्क रखते थे। राजस्थान के अनेक बड़े राजपूत सरदारों को भी उन्होंने संघ से जोड़ा। खाचरियावास के ठाकुर सुरेन्द्र सिंह आगे चलकर प्रांत संघचालक बने। भूस्वामी आंदोलन के नेताओं को भी उन्होंने राष्ट्रीय दृष्टि दी। उनमें से एक ठाकुर मदनसिंह दाता राजस्थान जनसंघ के अध्यक्ष बने।

श्री भंवरसिंह जी 1984 से 86 तक उदयपुर संभाग प्रचारक रहे; पर इस बीच वे आंत के कैंसर से पीड़ित हो गये। जानकारी मिलने पर उन्होंने हंसते हुए इस रोग का सामना किया। चिकित्सा के सभी प्रयासों के बावजूद 21 अगस्त, 1986 को उन्होंने सदा के लिए सबसे विदा ले ली।

(संदर्भ : अभिलेखागार, भारती भवन, जयुपर/श्री मोहन जोशी)

जन्म-दिवस: विद्यार्थी परिषद के शिल्पी बाल आप्टे

अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के संगठन में रीढ़ की भूमिका निभाने वाले बलवंत परशुराम (बाल) आप्टे का जन्म 18 जनवरी, 1939 को पुणे के पास क्रांतिवीर राजगुरु के जन्म से धन्य होने वाले राजगुरुनगर में हुआ था।

उनके पिता श्री परशुराम आप्टे एक स्वाधीनता सेनानी तथा समाजसेवी थे। वहां पर ग्राम पंचायत, सहकारी बैंक आदि उनके प्रयास से ही प्रारम्भ हुए। यह गुण उनके पुत्र बलवंत में भी आये। बालपन से ही संघ के स्वयंसेवक रहे बलवंत आप्टे प्रारम्भिक शिक्षा गांव में पूरी कर उच्च शिक्षा के लिए मुंबई आये और एल.एल.एम कर मुंबई के विधि विद्यालय में ही प्राध्यापक हो गये।

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1960 के दशक में विद्यार्थी परिषद से जुड़ने के बाद लगभग 40 वर्ष तक उन्होंने यशवंतराव केलकर के साथ परिषद को दृढ़ संगठनात्मक और वैचारिक आधार दिया। विद्यार्थी परिषद ने न केवल अपने, अपितु संघ परिवार की कई बड़ी संस्थाओं तथा संगठनों के लिए भी कार्यकर्ता तैयार किये हैं। इसमें आप्टे जी की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है।

1974 में विद्यार्थी परिषद के रजत जयंती वर्ष में वे राष्ट्रीय अध्यक्ष चुने गये। इस समय महंगाई और भ्रष्टाचार के विरुद्ध देश में युवा शक्ति सड़कों पर उतर रही थी। इस आंदोलन को विद्यार्थी परिषद ने राष्ट्रव्यापी बनाया। जयप्रकाश नारायण द्वारा इस आंदोलन का नेतृत्व स्वीकार करने से यह आंदोलन और अधिक शक्तिशाली हो गया।

इससे बौखलाकर इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लगा दिया। आप्टे जी भूमिगत होकर आंदोलन का संचालन करने लगेे। दिसम्बर 1975 में वे पकड़े गये और मीसा नामक काले कानून के अन्तर्गत जेल में ठूंस दिये गये, जहां से फिर 1977 में चुनाव की घोषणा के बाद ही वे बाहर आये। जेल जीवन के कारण उनकी नौकरी छूट गयी। अतः वे वकालत करने लगे। अगले 20 साल तक वे गृहस्थ जीवन, वकालत और विद्यार्थी परिषद के काम में संतुलन बनाकर चलते रहे। उन्होंने संगठन के बारे में केवल भाषण नहीं दिये। वे इसके जीवंत स्वरूप थे।

उनकी एकमात्र पुत्री चिकित्सा शास्त्र की पढ़ाई पूरी कर दो वर्ष विद्यार्थी परिषद की पूर्णकालिक रही। फिर उसका अन्तरजातीय विवाह परिषद के एक कार्यकर्ता से ही हुआ। इस प्रकार विचार, व्यवहार और परिवार, तीनों स्तर पर वे संगठन से एकरूप हुए।

1996 से 98 तक वे महाराष्ट्र शासन के अतिरिक्त महाधिवक्ता रहे। जब उन्हें भाजपा में जिम्मेदारी देकर राज्यसभा में भेजने की चर्चा चली, तो उन्होंने पहले संघ के वरिष्ठजनों से बात करने को कहा। इसके बाद वे आठ वर्ष तक भाजपा के उपाध्यक्ष तथा 12 वर्ष तक महाराष्ट्र से राज्यसभा के सदस्य रहे।

सांसदों को अपने क्षेत्र में काम के लिए बड़ी राशि मिलती है। उसकी दलाली का धंधा अनेक सांसद करते हैं। प्रारम्भ में कई लोग आप्टे जी के पास भी इस हेतु से आये; पर निराश होकर लौट गये। लोग अपना कार्यकाल समाप्त होने के बाद वर्षों तक दिल्ली में मिले भवनों में अवैध रूप से डटे रहते हैं; पर आप्टे जी ने कार्यकाल पूरा होने के दूसरे दिन ही मकान छोड़ दिया।

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नियमित आसन, प्राणायाम, व्यायाम और ध्यान के बल पर आप्टे जी का स्वास्थ्य बहुत अच्छा रहता था; पर जीवन में अंतिम एक-दो वर्ष में वे अचानक कई रोगों से एक साथ घिर गये, जिसमें श्वांस रोग प्रमुख था। समुचित इलाज के बाद भी 17 जुलाई, 2012 को उनका मुंबई में ही देहांत हुआ।

(संदर्भ : पांचजन्य, आर्गनाइजर, छात्रशक्ति आदि)

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अनुशासन प्रिय महादेव गोविन्द रानाडे

सामान्यतः नेता या बड़े लोग दूसरों को तो अनुशासन की शिक्षा देते हैं; पर वे स्वयं इसका पालन नहीं करते। वे सोचते हैं कि अनुशासन का पालन करना दूसरों का काम है और वे इससे ऊपर हैं; पर 18 जनवरी, 1842 को महाराष्ट्र के एक गाँव निफड़ में जन्मे श्री महादेव गोविन्द रानाडे इसके अपवाद थे।

 सरहद का साक्षी @महावीर प्रसाद सिघंल 

उन्होंने भारत की स्वतन्त्रता के आन्दोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया। इसके साथ ही समाज सुधार उनकी चिन्ता का मुख्य विषय था।

एक बार उन्हें पुणे के न्यू इंग्लिश स्कूल के वार्षिकोत्सव समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में शामिल होना था। आमन्त्रित अतिथियों को यथास्थान बैठाने के लिए द्वार पर कुछ कार्यकर्त्ता तैनात थे। उन्हें निर्देश था कि बिना निमन्त्रण पत्र के किसी को अन्दर न आने दें।

श्री रानाडे का नाम तो निमन्त्रण पत्र पर छपा था; पर उनके पास उस समय वह निमन्त्रण पत्र नहीं था। द्वार पर तैनात वह कार्यकर्त्ता उन्हें पहचानता नहीं था। इसलिए उसने श्री रानाडे को नियमानुसार प्रवेश नहीं दिया। श्री रानाडे ने इस बात का बुरा नहीं माना, वे बोले – बेटे, मेरे पास तो निमन्त्रण पत्र नहीं है। इतना कहकर वे सहज भाव से द्वार के पास ही खड़े हो गये।

थोड़ी देर में कार्यक्रम के आयोजकों की दृष्टि उन पर पड़े। वे दौड़कर आये और उस कार्यकर्ता को डाँटने लगे। इस पर वह कार्यकर्त्ता आयोजकों से ही भिड़ गया। उसने कहा कि आप लोगों ने ही मुझे यह काम सौंपा है और आप ही नियम तोड़ रहे हैं, ऐसे में मैं अपना कर्त्तव्य कैसे पूरा करूँगा। कोई भी अतिथि हो; पर नियमानुसार उस पर निमन्त्रण पत्र तो होना ही चाहिए।

आयोजक लोग उसे आवश्यकता से अधिक बोलता देख नाराज होने लगे; पर श्री रानाडे ने उन्हें शान्त कराया और उसकी अनुशासनप्रियता की सार्वजनिक रूप से अपने भाषण में प्रशंसा की। उन्होंने कहा कि आज ऐसे ही अनुशासनप्रिय लोगों की आवश्यकता है। यदि सभी भारतवासी अनुशासन का पालन करें, तो हमें स्वतन्त्रता भी शीघ्र मिल सकती है और उसके बाद देश की प्रगति भी तेजी से होगी। इतना ही नहीं, कार्यक्रम समाप्ति के बाद उन्होंने उस कार्यकर्ता की पीठ थपथपा कर उसे शाबासी दी। वह कार्यकर्ता आगे चलकर भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन में सक्रिय हुआ। उसका नाम था गोपाल कृष्ण गोखले।

श्री रानाडे में अनुशासन, देशप्रेम व चारि×य के ऐसे सुसंस्कार उनके परिवार से ही आये थे। उनका परिवार परम्परावादी था; पर श्री रानाडे खुले विचारों के होने के कारण प्रार्थना समाज के सम्पर्क में आये और फिर उसके सक्रिय कार्यकर्ता बन गये।

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इस नाते उन्होंने हिन्दू समाज और विशेषकर महाराष्ट्रीय परिवारों में व्याप्त कुरीतियों पर चोट की और समाज सुधार के प्रयास किये। उनका मत था कि स्वतन्त्र होने के बाद देश का सामाजिक रूप से सबल होना भी उतना ही आवश्यक है, जितना आर्थिक रूप से। इसलिए वे समाज सुधार की प्रक्रिया में लगे रहे।

इस काम में उन्हें समाज के अनेक वर्गों का विरोध सहना पड़ा; पर वे विचलित नहीं हुए। उनका मानना था कि सामाजिक रूढ़ियों को तोड़ने की पहल जो भी करेगा, उसे घर-परिवार तथा समाज के स्थापित लोगों से संघर्ष मोल लेना ही होगा। इसलिए इस प्रकार की मानसिकता बनाकर ही वे इस काम में लगे। इसीलिए आज भी उन्हें याद किया जाता है।

पुण्य-तिथि:  आत्मजागरण के पुरोधा दादा लेखराज

इस जगत् में अपने लिए तो सब ही जीते हैं; पर अमर वही होते हैं, जो निजी जीवन की अपेक्षा सामाजिक जीवन को अधिक महत्त्व देते हैं। 1876 में सिन्ध प्रान्त (वर्त्तमान पाकिस्तान) के एक सम्भ्रात परिवार में जन्मे श्री लेखराज ऐसे ही एक महामानव थे, जिन्होंने आगे चलकर ब्रह्मकुमारी नामक एक महान आध्यात्मिक आन्दोलन की स्थापना की।

आत्मजागरण के पुरोधा दादा लेखराज

लेखराज जी का बचपन से ही अध्यात्म की ओर आकर्षण था। इसलिए लोग इन्हें दादा (बड़ा भाई) कहने लगे। बालपन में ही पिताजी का देहान्त हो जाने से इन्हें छोटी अवस्था में ही कारोबार करना पड़ा। इन्होंने हीरे-जवाहरात का व्यापार किया। मधुर स्वभाव और प्रामाणिकता के कारण इनका व्यापार कुछ ही समय में भारत के साथ विदेशों में भी फैल गया।

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पर इसके साथ ही इनके मन में यह चिन्तन भी चलता रहता था कि व्यक्ति को कष्ट क्यों होते हैं तथा वह इन कष्टों और निर्धनता से कैसे मुक्त हो सकता है ? इसके लिए उन्होंने अपने जीवन में 12 गुरुओं का आश्रय लिया; पर इन्हें किसी से आत्मिक सन्तुष्टि नहीं मिली। 60 वर्ष की अवस्था में वाराणसी में अपने एक मित्र के घर पर इन्हें कुछ विशिष्ट आध्यात्मिक अनुभूतियाँ हुईं, जिससे इनके जीवन में आमूल-चूल परिवर्तन हो गया।

दादा लेखराज ने देखा कि इस कलियुगी दुनिया का महाविनाश होने वाला है और इसमें से ही एक नयी दुनिया का निर्माण होगा। उन्हें ऐसा लगा मानो उनके तन और मन में ईश्वरीय शक्ति का आगमन हुआ है। उस शक्ति ने दादा को उनके अतीत और आदिकाल के संस्मरण सुनाए। इस परमशक्ति ने उन्हें ही नयी दुनिया के निर्माण के लिए केन्द्र बिन्दु बनने को कहा तथा उनका नाम बदल कर प्रजापिता ब्रह्मा रख दिया। उस शक्ति ने इस काम में नारी शक्ति को आगे रखने का भी आदेश दिया।

अब दादा ने उस परमसत्ता का आदेश मानकर काम शुरू कर दिया। इसके लिए उन्होंने ‘ओम मण्डली’ का गठन किया। ईश्वरीय शक्ति ने उनकी सभी उलझनों को मिटा दिया था। नारियाँ स्वभाव से कोमल होती हैं। दादा ने उन्हें भौतिक विद्याओं से दूर हटाकर राजयोग की शिक्षा दी। इससे उनमें छिपी शक्तियाँ उजागर होने लगीं। दादा ने किसी धर्म या पन्थ का विरोध न करते हुए सबको अध्यात्म और सत्य का सरल ज्ञान कराया। इससे आसुरी शक्तियों का शमन होकर दैवी शक्तियों का जागरण हुआ।

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दादा की मान्यता थी कि स्व परिवर्तन से ही विश्व में परिवर्तन होगा। जब यह काम प्रारम्भ हुआ, तो दादा को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। इस संस्था में महिलाएँ अधिक सक्रियता से जुड़ीं, अतः दादा पर अनेक ला॰छन लगाये गये; पर वे इन सबकी चिन्ता न करते हुए अपने काम में लगे रहे। वस्तुतः उन्होंने हीरे जवाहरात के व्यापार के बदले मनुष्यों के अन्दर छिपे गुणों को सामने लाने का महत्वपूर्ण कार्य संभाल लिया था।

1947 में देश विभाजन के बाद दादा ने राजस्थान में आबू पर्वत को अपनी गतिविधियोें का केन्द्र बनाया। यहीं ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय जैसी संस्था का जन्म हुआ। श्वेत वस्त्रधारी बाल ब्रह्मचारी बहिनों को आगे रखकर चलने वाली यह संस्था आज विश्व के 130 देशों में काम कर रही है। 18 जनवरी, 1969 को दादा लेखराज ने अपनी देहलीला समेट ली; पर उनके अनुयायी उनकी दैवी उपस्थिति सब जगह अनुभव करते हैं।

जन्म-दिवस: ममतामयी उषा दीदी

मां का हृदय सदा ही ममता से भरा होता है; पर अपने बच्चों के साथ अन्य बच्चों को भी वैसा ही स्नेह प्रेम देने वाली उषा दीदी का जन्म 18 जनवरी, 1930 में आगरा में अत्यधिक सम्पन्न परिवार में हुआ था। सात भाइयों के बीच इकलौती बहिन होने के कारण उन्हें घर में खूब प्रेम मिला। उनके बड़े भाई श्री अशोक सिंहल ‘विश्व हिन्दू परिषद’ के अध्यक्ष हैं। श्री अशोक जी की ही तरह उषा जी भी एक सुकंठ गायक थीं।

अशोक जी के कारण घर में संघ के विचारों का भी प्रवेश हुआ, जिसका प्रभाव उषा जी पर भी पड़ा। विवाह के बाद 1964 में गृहस्थ जीवन के दायित्वों के बावजूद मा0 रज्जू भैया के आग्रह पर वे विश्व हिन्दू परिषद के महिला विभाग से सक्रियता से जुड़ गयीं। उन्होंने अपने बच्चों को भी हिन्दुत्व के प्रति प्रेम और समाज सेवा के संस्कार दिये। मुंबई में 1968 में जब मारीशस के छात्रों के लिए संस्कार केन्द्र खोला गया, तो उसकी देखभाल उन्होेंने मां की तरह की।

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कुछ समय बाद वे विश्व हिन्दू परिषद के काम के लिए प्रवास भी करने लगीं। प्रवासी जीवन बहुत कठिन है। वे इसकी अभ्यासी नहीं थीं; पर जिम्मेदारी स्वीकार करने के बाद उन्होंने कष्टों की चिन्ता नहीं की। कभी कार से नीचे पैर न रखने वाली उषा दीदी गली-मोहल्लों में कार्यकर्ताओं से मिलने पैदल और रिक्शा पर भी घूमीं। उ0प्र0, म0प्र0, राजस्थान और दिल्ली में उन्होंने महिला संगठन को मजबूत आधार प्रदान किया। महिलाओं को संगठित करने के लिए बने ‘मातृशक्ति सेवा न्यास’ के गठन में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी।

1979 में प्रयागराज में हुए द्वितीय विश्व हिन्दू सम्मेलन तथा 1987 में आगरा में हिन्दीभाषी क्षेत्र की महिलाओं के अभ्यास वर्ग के लिए उन्होेंने घोर परिश्रम किया। 1989 में प्रयागराज में संगम तट पर आयोजित तृतीय धर्म संसद में श्रीराम शिला पूजन कार्यक्रम की घोषणा हुई थी। उसकी तैयारी के लिए उषा दीदी एक महीने तक प्रयाग में रहीं और कार्यक्रम को सफल बनाया। 1984 में श्रीराम जन्मभूमि पर पहली पुस्तक भी उन्होंने ही लिखी।

1994 में दिल्ली में महिला विभाग का राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ। उसके लिए धन संग्रह की पूरी जिम्मेदारी उन्होेंने निभाई और 45 लाख रु0 एकत्र किये। ‘साध्वी शक्ति परिषद’ के सहòचंडी यज्ञ की पूरी आर्थिक व्यवस्था भी उन्होंने ही की। उनके समृद्ध मायके और ससुराल पक्ष की पूरे देश में पहचान थी। इस नाते वे जिस धनपति से जो मांगती, वह सहर्ष देता था। इसके साथ ही वे यह भी ध्यान रखती थीं कि धन संग्रह, उसका खर्च तथा हिसाब-किताब संगठन की रीति-नीति के अनुकूल समय से पूरा हो।

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उषा दीदी तन, मन और धन से पूरी तरह हिन्दुत्व को समर्पित थीं। संघ के प्रचारकों तथा विश्व हिन्दू परिषद के पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं को वे मां और बहिन जैसा प्यार और सम्मान देती थीं। संगठन के हर आह्नान और चुनौती को उन्होेंने स्वीकार किया। 1990 और फिर 1992 की कारसेवा के लिए उन्होेंने महिलाओं को तैयार किया और स्वयं भी अयोध्या में उपस्थित रहीं।

अनुशासनप्रिय उषा दीदी परिषद की प्रत्येक बैठक में उपस्थित रहती थीं। चुनौतीपूर्ण कार्य को स्वीकार कर, उसके लिए योजना निर्माण, प्रवास, परिश्रम, सूझबूझ और समन्वय उनकी कार्यशैली के हिस्से थे। इसलिए संगठन ने उन्हें जो काम दिया, उसे उन्होंने शत-प्रतिशत सफल कर दिखाया।

40 वर्ष तक परिषद के काम में सक्रिय रही उषा दीदी का 19 नवम्बर, 2010 को दिल्ली में 81 वर्ष की आयु में देहांत हुआ।

जन्म-दिवस: हंसमुख व मिलनसार भंवरसिंह शेखावत

श्री भंवरसिंह शेखावत का जन्म 18 जनवरी, 1923 को ग्राम चिराणा (जिला झुंझनू, राजस्थान) में हुआ था। वे 1944 में स्वयंसेवक और 1946 में प्रचारक बने। वे अपने माता-पिता की अकेली संतान थे। उनके पिताजी पहले जयपुर राज्य की सेना में थे। इसके बाद वे सरकारी सेवा में आ गये।

उनके प्रचारक बनने से अभिभावकों को बहुत कष्ट हुआ। वे अपनी माताजी से कहते थे कि तुम्हारा एक पुत्र देश की सेवा में गया है, तो तुम्हारी सेवा के लिए भगवान तुम्हें दूसरा पुत्र देगा। और सचमुच उनकी वाणी सत्य हुई। उनके जन्म के 23 वर्ष बाद उनके छोटे भाई गुमान सिंह का जन्म हुआ।

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भंवरसिंह जी 1946 से 1959 तक राजस्थान में कई स्थानों पर जिला प्रचारक रहे। इस बीच संघ पर प्रतिबन्ध लगने से सभी कार्यकर्ताओं को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। प्रतिबंध समाप्ति के बाद भी उन समस्याओं का अंत नहीं हुआ; पर भंवरसिंह जी धैर्यपूर्वक कार्यक्षेत्र में डटे रहे। वे 1959 से 76 तक बीकानेर, अजमेर तथा एक बार फिर बीकानेर विभाग प्रचारक रहे। 1976 से 1983 तक उन पर प्रांत व्यवस्था प्रमुख का दायित्व रहा।

व्यवस्था प्रमुख रहते हुए उनकी देखरेख में जयपुर में प्रांत कार्यालय ‘भारती भवन’ का निर्माण हुआ। जब कन्याकुमारी में श्री एकनाथ जी के नेतृत्व में विवेकानंद शिला स्मारक का निर्माण हुआ, तो राजस्थान में भंवरसिंह जी उस अभियान के संगठन मंत्री रहे। उनके नेतृत्व में पूरे प्रान्त से साढ़े छह लाख रु. एकत्र हुए, जिसमें एक लाख से अधिक का योगदान राजस्थान सरकार का था। इसके लिए बनी समिति में उन्होंने अनेक प्रभावी व प्रतिष्ठित लोगों को जोड़ा। राजस्थान विश्वविद्यालय के उपकुलपति डा0 मथुराप्रसाद शर्मा तथा शिक्षा मंत्री श्री शिवचरण लाल माथुर को उन्होंने समिति का अध्यक्ष बनाया।

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राजस्थान में शेखावटी के व्यापारियों ने देश भर में अपनी कारोबार क्षमता की धाक जमाई है। बिड़ला, डालमिया, सिंघानिया आदि यहीं के मूल निवासी हैं। जब ये सेठ अपने गांव आते थे, तो भंवरसिंह जी उन्हें अपने गांव का विकास करने तथा उनकी आर्थिक सामर्थ्य को देशहित में मोड़ने का प्रयास करते थे। वे उन सेठों की सम्पत्ति की देखभाल करने वालों से भी संपर्क रखते थे।

उन दिनों सेठ बिड़ला द्वारा पिलानी में स्थापित तकनीकी कॉलिज (बिट्स) में पूरे देश से छात्र आते थे। भंवरसिंह जी ने वहां शाखा चलाकर उनमें से कई को प्रचारक बनाया, जो राजस्थान के साथ ही अन्य प्रान्तों में भी गये। उनके समय के कई कार्यकर्ता आगे चलकर सार्वजनिक क्षेत्र में बड़े प्रसिद्ध हुए।

शेखावटी क्षेत्र में नाथ सम्प्रदाय के सन्तों का बड़ा प्रभाव है। इनसे वे नियमित संपर्क रखते थे। राजस्थान के अनेक बड़े राजपूत सरदारों को भी उन्होंने संघ से जोड़ा। खाचरियावास के ठाकुर सुरेन्द्र सिंह आगे चलकर प्रांत संघचालक बने। भूस्वामी आंदोलन के नेताओं को भी उन्होंने राष्ट्रीय दृष्टि दी। उनमें से एक ठाकुर मदनसिंह दाता राजस्थान जनसंघ के अध्यक्ष बने।

श्री भंवरसिंह जी 1984 से 86 तक उदयपुर संभाग प्रचारक रहे; पर इस बीच वे आंत के कैंसर से पीड़ित हो गये। जानकारी मिलने पर उन्होंने हंसते हुए इस रोग का सामना किया। चिकित्सा के सभी प्रयासों के बावजूद 21 अगस्त, 1986 को उन्होंने सदा के लिए सबसे विदा ले ली।

(संदर्भ : अभिलेखागार, भारती भवन, जयुपर/श्री मोहन जोशी)

जन्म-दिवस: विद्यार्थी परिषद के शिल्पी बाल आप्टे

अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के संगठन में रीढ़ की भूमिका निभाने वाले बलवंत परशुराम (बाल) आप्टे का जन्म 18 जनवरी, 1939 को पुणे के पास क्रांतिवीर राजगुरु के जन्म से धन्य होने वाले राजगुरुनगर में हुआ था।

उनके पिता श्री परशुराम आप्टे एक स्वाधीनता सेनानी तथा समाजसेवी थे। वहां पर ग्राम पंचायत, सहकारी बैंक आदि उनके प्रयास से ही प्रारम्भ हुए। यह गुण उनके पुत्र बलवंत में भी आये। बालपन से ही संघ के स्वयंसेवक रहे बलवंत आप्टे प्रारम्भिक शिक्षा गांव में पूरी कर उच्च शिक्षा के लिए मुंबई आये और एल.एल.एम कर मुंबई के विधि विद्यालय में ही प्राध्यापक हो गये।

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1960 के दशक में विद्यार्थी परिषद से जुड़ने के बाद लगभग 40 वर्ष तक उन्होंने यशवंतराव केलकर के साथ परिषद को दृढ़ संगठनात्मक और वैचारिक आधार दिया। विद्यार्थी परिषद ने न केवल अपने, अपितु संघ परिवार की कई बड़ी संस्थाओं तथा संगठनों के लिए भी कार्यकर्ता तैयार किये हैं। इसमें आप्टे जी की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है।

1974 में विद्यार्थी परिषद के रजत जयंती वर्ष में वे राष्ट्रीय अध्यक्ष चुने गये। इस समय महंगाई और भ्रष्टाचार के विरुद्ध देश में युवा शक्ति सड़कों पर उतर रही थी। इस आंदोलन को विद्यार्थी परिषद ने राष्ट्रव्यापी बनाया। जयप्रकाश नारायण द्वारा इस आंदोलन का नेतृत्व स्वीकार करने से यह आंदोलन और अधिक शक्तिशाली हो गया।

इससे बौखलाकर इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लगा दिया। आप्टे जी भूमिगत होकर आंदोलन का संचालन करने लगेे। दिसम्बर 1975 में वे पकड़े गये और मीसा नामक काले कानून के अन्तर्गत जेल में ठूंस दिये गये, जहां से फिर 1977 में चुनाव की घोषणा के बाद ही वे बाहर आये। जेल जीवन के कारण उनकी नौकरी छूट गयी। अतः वे वकालत करने लगे। अगले 20 साल तक वे गृहस्थ जीवन, वकालत और विद्यार्थी परिषद के काम में संतुलन बनाकर चलते रहे। उन्होंने संगठन के बारे में केवल भाषण नहीं दिये। वे इसके जीवंत स्वरूप थे।

उनकी एकमात्र पुत्री चिकित्सा शास्त्र की पढ़ाई पूरी कर दो वर्ष विद्यार्थी परिषद की पूर्णकालिक रही। फिर उसका अन्तरजातीय विवाह परिषद के एक कार्यकर्ता से ही हुआ। इस प्रकार विचार, व्यवहार और परिवार, तीनों स्तर पर वे संगठन से एकरूप हुए।

1996 से 98 तक वे महाराष्ट्र शासन के अतिरिक्त महाधिवक्ता रहे। जब उन्हें भाजपा में जिम्मेदारी देकर राज्यसभा में भेजने की चर्चा चली, तो उन्होंने पहले संघ के वरिष्ठजनों से बात करने को कहा। इसके बाद वे आठ वर्ष तक भाजपा के उपाध्यक्ष तथा 12 वर्ष तक महाराष्ट्र से राज्यसभा के सदस्य रहे।

सांसदों को अपने क्षेत्र में काम के लिए बड़ी राशि मिलती है। उसकी दलाली का धंधा अनेक सांसद करते हैं। प्रारम्भ में कई लोग आप्टे जी के पास भी इस हेतु से आये; पर निराश होकर लौट गये। लोग अपना कार्यकाल समाप्त होने के बाद वर्षों तक दिल्ली में मिले भवनों में अवैध रूप से डटे रहते हैं; पर आप्टे जी ने कार्यकाल पूरा होने के दूसरे दिन ही मकान छोड़ दिया।

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नियमित आसन, प्राणायाम, व्यायाम और ध्यान के बल पर आप्टे जी का स्वास्थ्य बहुत अच्छा रहता था; पर जीवन में अंतिम एक-दो वर्ष में वे अचानक कई रोगों से एक साथ घिर गये, जिसमें श्वांस रोग प्रमुख था। समुचित इलाज के बाद भी 17 जुलाई, 2012 को उनका मुंबई में ही देहांत हुआ।

(संदर्भ : पांचजन्य, आर्गनाइजर, छात्रशक्ति आदि)

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