17 जनवरी विशेष : रामसिंह कूका और उनके गोभक्त शिष्य, हिन्दी साहित्य के अमिट हस्ताक्षर रांगेय राघव, भारतीय सेना के मार्गदर्शक रणछोड़ दास रबारी ‘पागी’

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    बलिदान दिवस: रामसिंह कूका और उनके गोभक्त शिष्य

    17 जनवरी, 1872 की प्रातः ग्राम जमालपुर (मालेरकोटला, पंजाब) के मैदान में भारी भीड़ एकत्र थी। एक-एक कर 50 गोभक्त सिख वीर वहाँ लाये गये। उनके हाथ पीछे बँधे थे। इन्हें मृत्यु दण्ड दिया जाना था। ये सब सद्गुरु रामसिंह कूका के शिष्य थे।

    [su_highlight background=”#091688″ color=”#ffffff”]सरहद का साक्षी @महावीर प्रसाद सिंघल[/su_highlight]

    अंग्रेज जिलाधीश कोवन ने इनके मुह पर काला कपड़ा बाँधकर पीठ पर गोली मारने का आदेश दिया; पर इन वीरों ने साफ कह दिया कि वे न तो कपड़ा बँधवाएंगे और न ही पीठ पर गोली खायेंगे। तब मैदान में एक बड़ी तोप लायी गयी। अनेक समूहों में इन वीरों को तोप के सामने खड़ा कर गोला दाग दिया जाता। गोले के दगते ही गरम मानव खून के छींटे और मांस के लोथड़े हवा में उड़ते। जनता में अंग्रेज शासन की दहशत बैठ रही थी। कोवन का उद्देश्य पूरा हो रहा था। उसकी पत्नी भी इस दृश्य का आनन्द उठा रही थी।

    इस प्रकार 49 वीरों ने मृत्यु का वरण किया; पर 50 वें को देखकर जनता चीख पड़ी। वह तो केवल 12 वर्ष का एक छोटा बालक बिशनसिंह था। अभी तो उसके चेहरे पर मूँछें भी नहीं आयी थीं। उसे देखकर कोवन की पत्नी का दिल भी पसीज गया। उसने अपने पति से उसे माफ कर देने को कहा। कोवन ने बिशनसिंह के सामने रामसिंह को गाली देते हुए कहा कि यदि तुम उस धूर्त का साथ छोड़ दो, तो तुम्हें माफ किया जा सकता है।

    यह सुनकर बिशनसिंह क्रोध से जल उठा। उसने उछलकर कोवन की दाढ़ी को दोनों हाथों से पकड़ लिया और उसे बुरी तरह खींचने लगा। कोवन ने बहुत प्रयत्न किया; पर वह उस तेजस्वी बालक की पकड़ से अपनी दाढ़ी नहीं छुड़ा सका। इसके बाद बालक ने उसे धरती पर गिरा दिया और उसका गला दबाने लगा। यह देखकर सैनिक दौड़े और उन्होंने तलवार से उसके दोनों हाथ काट दिये। इसके बाद उसे वहीं गोली मार दी गयी। इस प्रकार 50 कूका वीर उस दिन बलिपथ पर चल दिये।

    गुरु रामसिंह कूका का जन्म 1816 ई0 की वसन्त पंचमी को लुधियाना के भैणी ग्राम में जस्सासिंह बढ़ई के घर में हुआ था। वे शुरू से ही धार्मिक प्रवृत्ति के थे। कुछ वर्ष वे महाराजा रणजीत सिंह की सेना में रहे। फिर अपने गाँव में खेती करने लगे। वे सबसे अंग्रेजों का विरोध करने तथा समाज की कुरीतियों को मिटाने को कहते थे। उन्होंने सामूहिक, अन्तरजातीय और विधवा विवाह की प्रथा चलाई। उनके शिष्य ही ‘कूका’ कहलाते थे।

    कूका आन्दोलन का प्रारम्भ 1857 में पंजाब के विख्यात बैसाखी पर्व (13 अप्रैल) पर भैणी साहब में हुआ। गुरु रामसिंह जी गोसंरक्षण तथा स्वदेशी के उपयोग पर बहुत बल देते थे। उन्होंने ही सर्वप्रथम अंग्रेजी शासन का बहिष्कार कर अपनी स्वतन्त्र डाक और प्रशासन व्यवस्था चलायी थी।

    मकर संक्रान्ति मेले में मलेरकोटला से भैणी आ रहे गुरुमुख सिंह नामक एक कूका के सामने मुसलमानों ने जानबूझ कर गोहत्या की। यह जानकर कूका वीर बदला लेने को चल पड़े। उन्होंने उन गोहत्यारों पर हमला बोल दिया; पर उनकी शक्ति बहुत कम थी। दूसरी ओर से अंग्रेज पुलिस एवं फौज भी आ गयी। अनेक कूका मारे गये और 68 पकड़े गये। इनमें से 50 को 17 जनवरी को तथा शेष को अगले दिन मृत्युदण्ड दिया गया।

    अंग्रेज जानते थे कि इन सबके पीछे गुरु रामसिंह कूका की ही प्रेरणा है। अतः उन्हें भी गिरफ्तार कर बर्मा की जेल में भेज दिया। 14 साल तक वहाँ काल कोठरी में कठोर अत्याचार सहकर 1885 में सदगुरु रामसिंह कूका ने अपना शरीर त्याग दिया।

    17 जनवरी/जन्म-दिवस : हिन्दी साहित्य के अमिट हस्ताक्षर रांगेय राघव

    यों तो हिन्दी साहित्य की श्रीवृद्धि में अनेक लेखकों ने योगदान दिया है; पर 17 जनवरी, 1923 को जन्मे रांगेय राघव का स्थान उनमें विशिष्ट है।

    हिन्दी साहित्य के अमिट हस्ताक्षर रांगेय राघव
    वे तमिलभाषी पिता और कन्नड़भाषी माँ की सन्तान थे; पर उन्होंने अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम हिन्दी को बनाया। 15 वर्ष की छोटी अवस्था से ही उनकी कविताएँ देश की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में छपने लगी थीं। उनकी संवेदनशीलता, पैनी भाषा तथा कथ्य की अलग शैली से लोगों को विश्वास ही नहीं होता था कि इन कविताओं का रचनाकार एक बालक है।

    रांगेय राघव की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उन्होंने समाज के उपेक्षित वर्ग को अपनी रचनाओं का आधार बनाया। यह वर्ग समाज जीवन की तरह साहित्य में भी उपेक्षित ही था। उन्होंने खानाबदोश और घुमन्तु जातियों के जीवन पर ‘कब तक पुकारूँ’ नामक उपन्यास लिखा, जिसका बहुत स्वागत हुआ। दूरदर्शन के विकास के बाद इस पर धारावाहिक भी बनाया गया। उनके काव्य संकलन ‘राह के दीपक’ में भी इन्हीं घुमन्तुओं का वर्णन है।

    रांगेय राघव ने वर्तमान के साथ ही इतिहास के विलुप्त अध्यायों पर भी अपनी सशक्त और जीवंत लेखनी चलाई। उनका उपन्यास ‘मुर्दों का टीला’ पाठकों को विश्व इतिहास की उस प्राचीनतम सिन्धु घाटी की सभ्यता की ओर ले जाता है, जो मुउन-जो-दड़ो या ‘मोहनजोदड़ो’ के नाम से प्रसिद्ध है।

    यह रांगेय राघव का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास माना जाता है। यद्यपि उपन्यासकार के रूप में 1941 में प्रकाशित ‘घरौंदे’ से ही उनकी पहचान बन गयी थी। इसमें जहाँ एक ओर विश्वविद्यालय के छात्रों के अन्तर्द्वन्द्व को उभारा गया है, वहीं किसानों और जमींदार के संघर्ष की कथा भी साथ-साथ चलती है।

    पर उनके जिस उपन्यास ने हिन्दी जगत को हिला दिया, वह था ‘विषाद मठ’। इसमें उन्होंने 1943 के बंगाल के अकाल को केन्द्र बनाया था। उपन्यास लिखने से पहले उन्होंने अकालग्रस्त क्षेत्र का भ्रमण किया। इस प्रकार उन्होंने जो कुछ आँखों से देखा, उसे ही लेखनी द्वारा कागज पर उतार दिया।

    प्रत्यक्ष अनुभव के कारण ही वे अकाल की भयावहता और उसके कारण तिल-तिलकर मरते लाखों लोगों की त्रासदी का सजीव चित्रण कर पाये। इसे पढ़कर लोगों की आंखें भर आती थीं। उनके अन्य प्रसिद्ध उपन्यास हैं – चीवर, महायात्रा, प्रतिदान, पक्षी और आकाश, सीधे सच्चे रास्ते आदि।

    उपन्यास के अतिरिक्त रांगेय राघव कहानी लेखन में भी सिद्धहस्त थे। उनकी कहानी तबेले का धुन्धलका, गदल, इन्सान पैदा हुआ… आदि ने साहित्य जगत में बड़ी ख्याति पायी। लेखन के साथ ही उन्होंने अनुवाद कार्य भी किया। विज्ञान, इतिहास, समाजशास्त्र आदि विषयों पर उनके लेख भी बहुचर्चित हुए। उनके इस विविध लेखन का आधार था उनका गहन अध्ययन। वे हिन्दी के सम्भवतः पहले ऐसे लेखक थे, जिन्होंने लेखन को ही अपना पूर्णकालिक काम माना और उसी से घर-परिवार का पालन किया।

    दुर्भाग्यवश प्रभु ने उन्हें अपनी प्रतिभा प्रकट करने का बहुत कम समय दिया। उन्होंने लगभग 22 वर्ष तक लेखन किया और इस दौरान 139 पुस्तकें लिखीं। उपन्यास, कविता, कहानी, यात्रा वर्णन, रिपोर्ट, नाटक, समीक्षा….सब विधाओं में उन्होंने प्रचुर कार्य किया। लेखन की शायद ही कोई विधा हो, जिसमें उन्होंने अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज न कराई हो। ऐसे प्रतिभाशाली लेखक का केवल 39 वर्ष की अल्पायु में कैंसर से देहावसान हो गया।

    17 जनवरी/पुण्यतिथि: भारतीय सेना के मार्गदर्शक रणछोड़दास रबारी ‘पागी’

    भारत की अपने पड़ोसी चीन और पाकिस्तान से सीमा पर प्रायः मुठभेड़ होती रहती है। इनमें जहां सैनिक आगे बढ़कर मोर्चे पर लड़ते हैं, वहां स्थानीय नागरिक पीछे से सेना का सहयोग करते हैं। ऐसे ही एक पशुपालक रणछोड़दास रबारी ‘पागी’ ने 1965 में सेना की जो सहायता की, उसे कभी नहीं भुलाया जा सकता। वे गुजरात से लगे पेथापुर गथडो गांव के पशुपालक गडरिये थे; पर 1947 में यह गांव पाकिस्तान में चला गया। इससे वहां हिन्दुओं का उत्पीड़न होने लगा। अतः वे सपरिवार गुजरात के बनासकांठा में बस गये।

    भारतीय सेना के मार्गदर्शक रणछोड़दास रबारी ‘पागी’

    राजस्थान और गुजरात के गडरिये अपने ऊंट, भेड़, बकरी आदि के साथ कई-कई दिन तक रेगिस्तानी क्षेत्रों में घूमते रहते हैं। चांद, सूर्य, तारे तथा अन्य नक्षत्रों की सहायता से उन्हें समय, मौसम तथा दिशा का ठीक ज्ञान होता है।

    रणछोड़दास तो इसके विशेषज्ञ ही थे। इसलिए 58 वर्ष की अवस्था में बनासकांठा के पुलिस अधीक्षक वनराज सिंह झाला ने उन्हें रास्ता दिखाने वाले मार्गदर्शक (पागी) के रूप में रख लिया। रणछोड़दास रेत पर पड़े पैरों के निशान देखकर बता देते थे इधर से गये व्यक्ति या पशु कितनी देर पहले गये हैं तथा कितनी दूर पहुंच गये होंगे। वे उनकी उम्र और कितना बोझ लेकर चल रहे हैं, इसका भी ठीक आकलन कर लेते थे। पशुओं की गंध और मल-मूत्र से वे उनके नर या मादा होने का अनुमान लगा लेते थे।

    1965 के युद्ध में पाकिस्तानी सेना ने गुजरात में कच्छ सीमा पर स्थित ‘विद्याकोट’ थाने पर कब्जा कर लिया। इस लड़ाई में लगभग 100 भारतीय सैनिक शहीद हुए। अतः दस हजार सैनिकों एक बड़ी टुकड़ी वहां भेजी गयी। उनके मार्गदर्शक थे रणछोड़दास। रेगिस्तान में तेज आंधी से रेत के टीले जगह बदल लेते हैं। इससे लोग भ्रमित हो जाते हैं; पर रणछोड़दास के साथ सेना अनुमान से 12 घंटे पहले ही ‘छारकोट’ के मोर्चे पर पहुंच गयी और पाकिस्तानी सेना को खदेड़ दिया। इतना ही नहीं, भारतीय सीमा में छिपे 1,200 शत्रु सैनिक भी पकड़ लिये गये। इसके लिए उन्हें ‘राष्ट्रपति पुरस्कार’ दिया गया।

    1971 के युद्ध में भी रणछोड़दास ने कच्छ के रण और सीमावर्ती सर क्रीक में कई जगह भारतीय सेना की ऐसी ही सहायता की। ऊंट को रेगिस्तान का जहाज कहते हैं। जहां जीप और ट्रक भी हार जाते हैं, वहां ऊंट ही काम आता है। बिना खाये-पिये वह दिन भर चलता रहता है। रणछोड़दास ने कई बार अपने ऊंटों पर लादकर बम, गोले और अन्य सैन्य सामग्री मोर्चे तक पहुंचायी। पाकिस्तान के पालीनगर को जीतने में उनकी बड़ी भूमिका थी। तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल मानेकशा ने इसके लिए उन्हें 300 रु. नकद पुरस्कार दिया।

    1965 और 1971 के युद्ध में भारतीय सेना को दिये गये अमूल्य योगदान के लिए उन्हें संग्राम पदक, पुलिस पदक तथा समर सेवा पदक मिले। जनरल मानेकशा तो रणछोड़दास से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने एक बार सैन्य हैलिकाॅप्टर भेजकर उन्हें अपने साथ भोजन के लिए बुलाया। रणछोड़दास के पास कपड़े की एक छोटी सी पोटली थी। उसमें दो मोटी रोटी, प्याज और गुजरात में प्रचलित बेसन से बना गांठिया था। जनरल मानेकशा ने दो में से एक रोटी खुद खाकर रणछोड़दास को अनूठा सम्मान दिया। अपने अंतिम दिनों में भी उन्होंने कई बार इस अनूठे योद्धा रणछोड़दास ‘पागी’ को याद किया।

    2009 में 108 वर्ष की अवस्था में रणछोड़दास ने स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति ले ली। 17 जनवरी, 2013 को 112 वर्ष की भरपूर आयु में उनका निधन हुआ। गुजरात के सीमावर्ती क्षेत्र के लोकगीतों में ‘पागी’ बाबा आज भी जीवित हैं। भारतीय सेना ने उनके सम्मान में उत्तर गुजरात में सुइगांव अंतरराष्ट्रीय सीमा की एक चैकी को ‘रणछोड़दास पोस्ट’ नाम दिया है। उनके जीवन पर एक हिन्दी फिल्म भी बन रही है।

    (अंतरजाल पर उपलब्ध सामग्री)