श्रीमद्भागवत कथा श्रवण से उत्तम लोक की प्राप्ति होती है, उत्तम लोक प्राप्ति के यह सात सरल उपाय। 

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श्रीमद्भागवत कथा श्रवण से उत्तम लोक की प्राप्ति होती है, उत्तम लोक प्राप्ति के यह सात सरल उपाय हैं।
श्रीमद्भागवत महापुराण की कथा प्राय: सात दिनों तक कहीं जाती है, अतः इसे सप्ताह कथा (वाचन) कहते हैं। कथा के तीन अंग है वक्ता, श्रोता और आयोजक। तीनों को अहंकार रहित होना चाहिए, कथा श्रवण के तीन प्रधान अंग हैं। श्रद्धा, जिज्ञासा और निर्मत्सरता। बिना जिज्ञासा के मन एकाग्र नहीं हो सकता है।

कथा सुनने के लिए दीन व विनम्रता की आवश्यकता है। (इसे मत्सर के बिना ‘निर्मत्सरता’ कहते हैं।) अब श्रद्धा के विषयक जानते हैं। श्रद्धा इसे कहते हैं – पाण्डवों ने माता की आज्ञानुसार द्रोपदी के साथ विवाह किया, शास्त्र के अनुकूल न होने पर भी मां की आज्ञा थी। यह है श्रद्धा। दशरथ ने राम को चौदह वर्ष का वनवास दिया, माता कौशल्या ने कहा मेरी आज्ञा से वन मत जाओ पर राम वन गये, यह थी पिता की आज्ञा। पिता के प्रति श्रद्धा और कितने ही उदाहरण हैं। परन्तु श्रद्धा है कि मन के विपरीत होने पर भी गुरु की आज्ञा का पालन करना, अति विपरीत होने पर भी प्रसन्नता के साथ आज्ञा मानना श्रद्धा है। शास्त्र की आज्ञा के पालन विषयक भी श्रद्धा का भाव हो तो उसे श्रद्धा कहते हैं।

आप आयोजक है पर क्या यह सम्पत्ति आपकी है, कौन सी बड़ी बात है कि मुझे कथा कहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, मैं थोड़े कह रहा हूं, आप जब सुन रहे हैं तब कह रहा हूं। आप श्रोता हैं तो अपना जीवन धन्य कर रहे हैं। अतः अहंकार रहित होकर इस पाण्डाल में बैठें, तब श्रीकृष्ण आएंगे। साथ कुछ नहीं जाएगा।
श्रीमद्भागवत कथा श्रवण से उत्तम लोक की प्राप्ति होती है, वैसे उत्तम लोक प्राप्ति के यह सात सरल उपाय भी हैं- तप, दान, शम, दम, लज्जा, सरलता और दया ।

इन्हें समझें– तप वह है कि हम अपने धर्म पालन के लिए सुख पूर्वक अनेक प्रकार के कष्टों को स्वीकार करें। देश, काल और पात्र को देख कर सत्कार पूर्वक अपनी वस्तु दूसरे को देना दान कहा जाता है। विषाद, कठोरता, चंचलता, व्यर्थ चिन्तन, राग-द्वेष, मोह, वैर को चित्त से हटा कर तब चित्त को परमात्मा से लगाना ही शम है। इन्द्रियों को अपने वश में रखना दम है। तन, मन और वचन से बुरे कर्म करने में संकोच ही लज्जा है। छल, कपट और अहंकार रहित रहना सरलता है। और बिना किसी भेदभाव से प्राणि मात्र के दु:ख को देखकर हृदय का द्रवित होना ही दया है।

तो आइए! इन सात दिनों तक अपने तन, मन और वाणी को ईश्वर मय बनाते हुए भगवान की लीलाओं का गुणगान और रसास्वादन करने का प्रयास करेंगे। दिखावा नहीं, मन, कर्म और वाणी से ईश्वर के प्रति समर्पण। न यह शरीर अपना, न यह स्थान अपना, न ये मित्र अपने, अपना तो बस प्यारा “श्रीकृष्ण” है। सात दिनों तक हृदय की सात ग्रन्थियों को खोलने की चेष्टा करनी है। प्यार से “जय श्री राधा” कहिए और आपका व मेरा भी यही रिश्ता सात दिन तक रहेगा। ऐसा मान कर व्यवहार कीजिए।

आचार्य पं. प्रभु शरण बहुगुणा, कथावाचक 

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