वात्सल्य की साक्षात मूर्ति है मॉ

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    वात्सल्य की साक्षात् मूर्ती है माँ
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    मॉ: वात्सल्य की साक्षात मूर्ति 

    वात्सल्य की साक्षात मूर्ति भी मॉ ही है, मॉ ही सभी प्रकार के रसो की रसेश्वरी भी है, इसीलिए ईश्वर ने भी बहुत सोच-विचार कर वात्सल्य के पूर्णकूम्भ को प्रदान करने के लिये एक मॉ का ही चयन किया है।

    उपाध्यायात् दश आचार्यः आचार्याणां शतं पिता।सहस्रं तु पित्रन् माता गौरवेणअतिरिच्यते।।

    जिस प्रकार मानव के जीवन में शिक्षा और ज्ञान प्रदान करने में आचार्य, सामान्य शिक्षकों से दस गुणा श्रेष्ठ होता है और एक सौ आचार्यों से भी श्रेष्ठ एक पिता होता है, उसी प्रकार  एक माता श्रेष्ठता और सम्मान में पिता से भी हजार गुणा श्रेष्ठ होती है।

    प्रस्तुति: पं० सुन्दर लाल उनियाल

    समस्त प्राणिमात्र में केवल और केवल जन्मदात्री मॉ ही ऐसी है जिनका अपनी संतान को शिक्षित करने और पालने पोसने में किया गया योगदान, अन्य व्यक्तियों के योगदान से हजारों गुणा महत्त्वपूर्ण है।

    आज के परिपेक्ष में यह बात ठीक है कि हमारी आत्मा स्वयं अनेक ऋद्धि-सिद्धियों का केन्द्र है, जो शक्तियां ईश्वर मे है, वे सभी आत्मा मे भी है, लेकिन जिस प्रकार राख से ढका हुआ अंगार मंद हो जाता है, वैसे ही आंतरिक मलीनताओ के कारण आत्मतेज कुण्ठित हो जाता है, इस कारण आज मॉ-बाप की स्थिति अत्यन्त कष्टप्रद सी हो गयी है।

    माँ जो परमकृपा का स्वरुप तथा परमपूण्य का प्रतीक है, मॉ मंत्र भी है और मॉ ही मंत्र-धारणा भी है तथा मॉ ही प्रथम गुरु-शिक्षिका भी है, जो जीव को भौतिकतावादी न बनाकर आध्यात्मिकता से जोड़ती है, जिससे जीव का कल्याण ही होता है।

    वात्सल्य की साक्षात मूर्ति भी मॉ ही है, मॉ ही सभी प्रकार के रसो की रसेश्वरी भी है, इसीलिए ईश्वर ने भी बहुत सोच-विचार कर वात्सल्य के पूर्णकूम्भ को प्रदान करने के लिये एक मॉ का ही चयन किया है।

    एक मॉ ही है जिसमे होश, हौसला और होशियारी के साथ-साथ प्रतिपल जागरूक रहने का लक्षण भी विद्यमान है, जिसके कारण उसमे नेतृत्व तथा मार्गदर्शन करने की पूर्ण क्षमता भी है।

    माँ एक चिन्तक भी है और एक विचारक भी, जिससे परम्पराए आगे बढ़ती है और नई-नई धाराओ को विकसित करती है, जिससे महावीर, बुद्ध, कृष्णद्वैपायन भगवान वेदव्यास जैसे विचारक जन्म लेते है।

    यह सत्य है कि जीवन में समस्याए आती हैं, लेकिन यही समस्याए जीवन को जीने लायक भी बनाती है, कृपया अपनी प्रियता और अप्रियता को संयम से बाँधकर रखते हुये अपने माता-पिता के साथ-साथ दुसरो के माता-पिता का भी समान रूप से आदर व सम्मान करें।