धरती की भी भार सहन करने की क्षमता होती है जनाब!

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धरती की भी भार सहन करने की क्षमता होती है जनाब! जोशीमठ (भू क्षेत्र) में दरार! दहशत और भय का वातावरण!

धरती की भी भार सहन करने की क्षमता होती है जनाब! जोशीमठ (भू क्षेत्र) में दरार! दहशत और भय का वातावरण! त्रासदी के लिए हम स्वयं उत्तरदाई हैं। यह कोई दैवी दोष नहीं बल्कि मानवीय कृृत्यों का कारण है।

विश्व प्रसिद्ध ज्योतिष्मठ, जहां भगवान ज्योतिर्लिंग के रूप मे विद्यमान हैं जोशीमठ (भू क्षेत्र) के नाम से विख्यात तीर्थ सरकार, निवासियों,और वैज्ञानिकों की चिंता का कारण बना हुआ है। पूरे हिमालयन क्षेत्र में देखा जाए तो एक नहीं सौ दरकते जोशीमठ(भू क्षेत्र)सामने आ जाएंगे। जो कि तथाकथित विकास के नाम पर मानव की विनाश की कहानी लिख रहे हैं। अनियोजित तरीके से किया गया कथित विकास कभी फलीभूत नहीं होता। इसके साथ ही नियोजित ढंंग से निर्माण कार्यों की केवल नसीहत दी जाती रही है।

सरहद का साक्षी @सोमवारी लाल सकलानी ‘निशांत’

बर्फ के बीच आशियानें, समुद्र के ऊपर तैरते महल, रेगिस्तान में डिज्नीलैंड और सड़कों के किनारे अंधाधुंध भवन निर्माण, मानव के आपाधापी की कहानी कह रहे हैं। आदि शंकराचार्य ने जब ज्योतिष्मठ का निर्माण किया उससे पूर्व कि यह स्थान अस्तित्व में रहा होगा। भले ही चर्चित ना रहा हो। नरसिंह मंदिर को भी अगर हम प्राचीन मानें तो यह आस्था का विषय है पारिस्थितिकीय नहीं।

मनुष्य की नियति बहुत खराब है। ईश्वर ने उसके विनाश के लिए स्वयं उसे बुद्धि के साथ-साथ दुर्बुद्धि भी दी है और जब धरती माता के लिए मानवीय कृत्य असह्य हो जाते हैं तो उसे दंड देने के लिए प्रकृति अपना रौद्र रूप दिखाती है। चाहे बाढ़ के रूप में हो या भूकंप के रूप में, लैंडस्लाइडिंग के रूप में हों या बाढ के रूप या जलवायु परिवर्तन के रूप में हो।

जोशीमठ की वर्तमान आपदा के विषय में केवल इतना लिखा जा सकता है कि एक जोशीमठ (कस्बे) का विस्थापन किया जा सकता है लेकिन पहाड़ के हजारों जोशीमठ (कस्बों) का विस्थापन नहीं किया जा सकता है।

हमारे पुरखों के समय जो निर्माण कार्य किए हैं वह आज भी अजर -अमर हैं। देवभूमि हिमालय और उसके अंतर्गत आने वाले राज्य, उन राज्यों के आच्छादित पहाड़ी कस्बे और नगर, अब क्रीड़ा स्थल बन चुके हैं। धर्म स्थलों के बावजूद अब पर्यटन, ऐशो -आराम और मौज-मस्ती के केंद्र बनते जा रहे हैं क्षमता से अधिक भार हो जाने के कारण धरती भी उसे धकेलने की कोशिश करती है। जब विनाश लीला आती है तो हमेशा गरीब, असहाय और स्थानीय निवासियों को झेलना पड़ता है। सरकारे हाथ- पांव मारती हैं। वैज्ञानिक तथ्य बताते हैं। पत्रकार बढ़ा- चढ़ाकर के बातों को सामने लाकर अपने को स्थापित करने का काम करते हैं लेकिन हकीकत की बात, पर्यावरणविद ही करते रहे हैं।

संपूर्ण हिमालय क्षेत्र जो कि निर्माणाधीन कहा जाता है और सभी जानते हैं हिमालय पृथ्वी का मानदंड होने के साथ-साथ जैव- विविधता, जल, जंगल तथा मिट्टी, पानी और बयार को देने वाला है। साथ ही देवताओं की आत्मा यहां निवास करती है। प्राचीन समय से इन पहाड़ी स्थलों पर यात्राएं होती थी। लोग पदयात्रा करते थे। धार्मिक आस्था से यात्राएं होती थी। स्थानीय लोगों को भी रोजगार मिलता था और सांस्कृतिक समन्वय भी स्थापित होता था लेकिन कथित वैज्ञानिक युग में यह सब बातें नदारद हैं।

सड़कों के किनारे कब्जे, कब्जाने भूमि पर अनियोजित निर्माण, कोई मास्टर प्लान नहीं, नरसी ब्रिज की व्यवस्था है न प्रकृति के सुनियोजित बस, निर्माण ही निर्माण कार्य करने की योजना है। मिट्टी के टीलों के ऊपर मकान बनाए जा रहे हैं। ऊपर के घरों का रिसता हुआ पानी और सीवरेज, दूसरे घरों के अंदर तक आ रहा है। यह संपूर्ण पहाड़ी क्षेत्रों में देखा जा सकता है।

हमारे पूर्वजों के अलावा अंग्रेजों की भी एक समझ थी। जब उन्होंने मसूरी बनाया तो पूर्ण भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के आधार पर शहर का निर्माण किया। हर प्रकार का इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा किया। जिसके एवज में देहरा जैसे महान और बड़े शहर का विकास हुआ जो कि आज संपूर्ण गढ़वाल के लोगों के स्वैच्छिक पलायन की शरण स्थली बन गया है और धन्नाओं के रैन- बसेरे और उत्तराखंड की राजधानी के रूप में अब कुरुप बनता जा रहा है।

कुछ समय पूर्व केदारनाथ आपदा आई थी। तेरह की बात है। यह सौ साल पूर्व भी आई थी लेकिन मानवीय स्मरण शक्ति कमजोर होती है कि समयांतराल मे वह सब कुछ भूल जाती है। मनुष्य के अहंकार के सामने देवता के लाचार हो जाते हैं और प्रकृति को न्याय करना पड़ता है।

20 किलो वजन उठाने वाले व्यक्ति के सिर पर अगर क्विंटल की बोरी रखी जाए तो अंत होना निश्चित है। यही उदाहरण प्रकृति के संदर्भ में भी है। जंगल काट दिए हैं। नदियों का पानी सूख गया है। पहाड़ों की छाती चीर करके छलनी कर दी है। गांव -कस्बे,बाटे- घाटों पर सीमेंट और कंक्रीट बिछाकर पैदल चलने वालों के लिए मुसीबत खड़ी कर दी है। बरसात का पानी, असंख्य छतों का पानी, जब इकट्ठा होकर के ढलान वाले रास्तों से गुजरता है तो सूखे क्षेत्रों में भी नदियों जैसा दृश्य उत्पन्न हो जाता है। जो अपने साथ ले आती हैं कयामत। नीचे घाटियों में रहने वाले लोग, मवेशी, कृषि भूमि, पारंपरिक कुटीर उद्योग, घाट- घराट इस विप्लव की चपेट में आते हैं। इसका दोषी कौन है? हमारी नीतियां! हमारी सोच! और हमारी भोग लिप्सा! निजी स्वार्थ।

जोशीमठ में दरार का आना किसी दुर्भाग्य से कम नहीं है। धर्म और संस्कृति का प्रतीक क्षेत्र, इस प्रकार के प्राकृतिक आपदा का शिकार होना एक चेतावनी के रूप में देखना चाहिए। सीमांत क्षेत्रों तथा अन्य सुरक्षा संसाधन पहुंचाने के लिए सड़कों का होना जरूरी है लेकिन सिस्टम से बनी हुई है कुछ सड़कें ही जरूरी हैं। इनको बनना भी चाहिए लेकिन गांव को बंजर छोड़कर शहर और कस्बों में जनसंख्या का भार बढ़ाना, तीर्थ स्थलों में दैत्याकार इमारतों का निर्माण, बड़े-बड़े होटल और रेस्टोरेंट, बहुमंजिला इमारतें,सीवरेज की व्यवस्था न होना या कोई भी अन्य बड़े निर्माण कार्य असंगत हैं।

आज के समय हम ज्यादा कोर्ट पर निर्भर हो गए हैं ।अगर निजी स्वार्थों के अनुकूल बात ना हुई तो कोर्ट चले जाते हैं और अगर स्वार्थ सिद्ध करना है तो तब भी कोर्ट चले जाते हैं। पूरी न्याय व्यवस्था को भी असमंजस में डालने के हम स्वयं कारक हैं। इसलिए माननीय दृष्टिकोण तथा प्रकृति की ताकत को समझना चाहिए और यह भी याद रहे कि हिमालयी ऐसा संवेदनशील क्षेत्र है जो आस्था और परिवर्तन का केंद्र रहा है। यहां युगों-युगों तक असंगत, अनियोजित और अनैतिक कार्य नहीं हो सकते और यदि किसी ने नजरअंदाज किया तो खामियाजा भुगतना ही पड़ेगा। कभी वरूणावत दरकेगा तो कभी जोशीमठ।

गांवों के स्वच्छ वातावरण को छोड़कर के शहर की तंग गलियों में जाकर जीवन निर्वाह करना मजबूरी हो सकती है लेकिन स्थिति ठीक होने के बावजूद लोग उन्ही जगहों पर अतिक्रमण, धनोपार्जन, आशियाने बना लेते हैं फिर राजनीतिक दबाव में मालिकाना हक पाने के लिए प्रयास करते हैं यदि मालिकाना हक न मिला तो झंडा- डंडा शुरू कर देते हैं।

राजनीति शह और मात का खेल खेलती है। जनता की फिक्र कम और निहित स्वार्थ की चिंता ज्यादा होती है। ठेकेदार को ठेके की चिंता और व्यापारी को अपने व्यापार की चिंता होती है। सदैव ईमानदार, गरीब प्रतिदिन के रोटी कमाने वाला इंसान अधिक प्रभावित होते हैं। सबके लिए एक दिन संकट खडा हो जाता है। इसलिए शासन -प्रशासन, बुद्धिजीवी वर्ग, वैज्ञानिकों और धार्मिक विचारों के व्यक्तियों को देवभूमि के अनुरूप ही यहां की व्यवस्था और निर्माण कार्यों को करने की सोच होनी चाहिए। प्रकृति और मानव के बीच संतुलन स्थापित होकर ही विकास हो सकता है। अन्यथा एक जोशीमठ (भू क्षेत्र) नहीं सैकड़ों जोशीमठ (भू क्षेत्र) आपदाओं के लिए तैयार रहें।

(कवि कुटीर)
सुमन कॉलोनी चंबा, टिहरी गढ़वाल।

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