संस्कृति और कला से जोड़ते हैं मेले और त्यौहार

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संस्कृति और कला से जोड़ते हैं मेले और त्यौहार

त्रिलोक चन्द्र भट्ट

मेले और त्यौहार हमें संस्कृति और कला से जोड़ते हैं। पूरी दुनियां में जितनी तेजी से औद्योगिक और वैज्ञानिक परिवर्तन हुए उतनी ही तेजी से सामाजिक परिवर्तन भी हुए हैं। इस सामाजिक परिवर्तन में मेले, त्यौहार और उत्सव ही ऐसे आयोजन हैं जिन्होंने हमें देश-दुनियां के किसी भी कोने में रहने के बावजूद एक-दूसरे से मिलने के अनेक अवसर प्रदान किये हैं। मेले और त्यौहार हमें संस्कृति और कला से जोड़ते हैं।

इन सामाजिक परिवर्तनों ने अनेक मानव समाजों का गौरवशाली अतीत, उनकी परंपराएं, रहन-सहन, खान-पान और सांस्कृतिक विरासत को विलुप्तता के कगार पर खड़ा कर दिया है।

हालांकि भारत में वैदिक युग से लेकर मनु स्मृति के युग तक परिवर्तन की गति बहुत धीमी थी क्योंकि इस लंबे युग में आर्थिक और सामाजिक ढ़ांचे के दर्शन में कोई ऐसा परिवर्तन नहीं आया जो व्यक्तियों में मूल्यों, विचारों और कार्य करने की पद्धति में परिवर्तन ले आता। लेकिन पूरे विश्व में सामाजिक परिवर्तन की गति में जो परिवर्तन आया वह विशेषतः औद्योगिक क्रांति तथा शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार की आवश्यकताओं पूर्ति के लिए हुए पलायन के कारण आया है।

इस सामाजिक परिवर्तन में मेले, त्यौहार और उत्सव ही ऐसे आयोजन हैं जिन्होंने हमें देश-दुनियां के किसी भी कोने में रहने के बावजूद एक-दूसरे से मिलने के अनेक अवसर प्रदान किये हैं।

पहले केवल धार्मिक और सांस्कृतिक मेले ही मिलने का माध्यम थे लेकिन अब अलग-अलग तरह के मेले विभिन्न कार्यों, उद्देश्यों और व्यवसायों को संचालित करने वाले लोगों से मिलाने और उन्हें जोड़ने में सहायक सिद्ध हो रहे हैं। रोजगार मेला, कृषि विज्ञान मेला, पशु मेला, वाहन मेला, स्वास्थ्य मेला आदि इसके उदाहरण हैं। देश में रोजगार मेलों का भी प्रचलन बढ़ा है।

ऐसे मेले रोजगार सृजन को आगे बढ़ाने के बारे में एक उत्प्रेरक का कार्य कर रहे हैं। ये युवाओं के सशक्तिकरण और राष्ट्रीय विकास की भागीदारी के लिए सार्थक अवसर उपलब्ध करातें हैं। किसानों के लिए कृषि विज्ञान मेले भी आयोजित हो रहे हैं जिनमें किसानों को कृषि क्षेत्र विकसित करने की नई तकनीकों के साथ प्रशिक्षण भी दिया जाता है।

किसानों को कृषि क्षेत्र में विकसित नवाचारों की जानकारी तथा विकसित तकनीक से खेती कर अपनी आय बढ़ाने के तरीके भी बताये जाते हैं। साथ ही उन्नत बीजों की बिक्री, उन्नत किस्म के जीवंत फसल प्रदर्शन, उन्नत कृषि तकनीक की जानकारी, मिट्टी व पानी की जांच, किसान संगोष्ठी और कृषि संबंधी समस्याओं का वैज्ञानिकों द्वारा समाधान भी किया जाता है।

इसी तरह कई जगहों पर पशु मेले भी आयोजित हो रहे हैं। किसानों को एक मंच प्रदान करने वाले ये मंच बिना किसी बिचौलियें के अपने-अपने पशुओं को खरीदने या बेचने का अवसर देते हैं। बिहार में कार्तिक-पूर्णिमा के अवसर पर लगने वाला विश्व प्रसिद्ध सोनपुर का पशु मेला इसका बड़ा उदाहरण है। राजस्थान में तो सालभर में दो सौ से अधिक पशु मेले लगते हैं।

देश में आटो एक्सपो (वाहन प्रदर्शनी) भी बड़े व्यापार मेले के रूप में आयोजित हो रहा है। ऑटोमोटिव कम्पोनेन्ट मेन्युफैक्चरर्स एसोसिएशन, भारतीय ऑटोमोबाइल निर्माता संघ और कॉन्फोडरेशन ऑफ इंडस्ट्रीज द्वारा संयुक्त रूप से दिल्ली के प्रगति मैदान में हर दो साल में आयोजित होने वाला यह मेला शंघाई मोटर शो के बाद एशिया का दूसरा सबसे बड़ा व्यापार मेला है। कुछ जगह देश से शहीदों की स्मृति में शहीद मेलों का आयोजन हो रहा है। इस तरह मेले न केवल धार्मिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के प्रदर्शन, विकास तथा उनके संरक्षण और संवर्घन का आधार बन रहे हैं बल्कि वे कृषि, पशुपालन, उद्योग, व्यापार आदि के लिए भी लाभकर साबित हो रहे हैं।

प्राचीन समय में जब संचार और परिवहन की कोई सुविधाएं नहीं थी तो मेले, त्यौहार और उत्सवों जैसे सामाजिक आयोजन ही थे जिन्होंने लोगों के रिश्तेदारों और दूर-दराज रहने वाले मित्रों के साथ मुलाकातों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। निश्चित दिन और पर्वों पर आयोजित ये मेले ही थे जिनमें अपनो से मिलने की चाहत पाले हुए लोग उस दिन और पर्व का बेशब्री से इंतजार करते थे। कई दिन और मीलों पैदल चलकर लोग उन तीर्थस्थलों, मंदिरों, नदियों के तटों और उन गाँव और कस्बों में पहुंच कर घंटों और कई-कई दिनों तक स्वजनों से मिलने का इंतजार करते थे, जहां निश्चित दिन और पर्वों पर मेले या उत्सव होते थे।

वे जानते थे मेले में उनके रिश्तेदार या उनके गांव का कोई न कोई व्यक्ति आयेगा जिससे वे उनकी कुशलक्षेम जान सकेंगे।
लेकिन बाद के दिनों में औद्योगिक क्रांति ने केवल आर्थिक ढांचे को ही परिवर्तित नहीं किया बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक संरचना से संबंधित अनेक मूल्यों को भी परिवर्तित किया है। इससे कोई भी देश, समाज और वर्ग नहीं बच पाया।

शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार की तलाश में अपने घर परिवार को छोड़कर जाने वाले भी इससे अछूते नहीं रहे। लेकिन इन सबके बीच सेतु का काम करने वाले ‘मेले’ और ‘उत्सव’ ऐसे आयोजन रहे हैं जिन्होंने जनमानस को जोड़ने और संस्कृति के संरक्षण और संवर्धन का काम किया है। इसमें प्रवासियों का बहुत बड़ा योगदान है। वे जहां-जहां गये वहां-वहां सामाजिक और सांस्कृतिक संस्थाएं बनाकर अपनी परंपराओं और रीति रिवाजों को सहेजते हुए सार्वजनिक मंचों पर भी प्रदर्शित करते रहे।

पुरानी पीढ़ी से नई पीढ़ी को हस्तांतरित होने वाली यह सांस्कृतिक विरासत एक-दूसरे के माध्यम से आज पूरी दुनियां में पहंुच चुकी है। उसमें भारत का हिमालयी राज्य उत्तराखंड भी अछूता नहीं है।

कालांतर में यहां के मूल निवासियों ने अपने परिवार की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए रोजगार की तलाश में पलायन तो किया लेकिन अपनी सेवा पूर्ण करने के बाद वे अपने घर, जमीन पर लौटते रहे। लेकिन बीते पचास सालों में पलायन की रफ्तार बढ़ी और ऐसे लोगों की संख्या में वृद्धि हुई जो एक बार दूसरे राज्यों और महानगरों में पलायन करने के बाद वहीं के होकर रह गये। बावजूद इसके ‘मेले’ और ‘उत्सवों’ ने पहाड़ से लेकर मैदान और देश-विदेश तक प्रवासियों और यहां के निवासियों को जोड़ने का कार्य भी किया है।

यहां यह जानना जरूरी है कि उत्तराखंड में मेले को ‘कौथिग’ या ‘कौतिक’ कहा जाता है। यह पहाड़ी समाज की लोक संस्कृति की पहचान व लोकजीवन से जुड़ी संास्कृतिक परंपराओं का प्रतिबिंब हैं। इनसे आपसी प्रेम, स्नेह, सौहार्द, मैत्री, जनसेवा की भावना में ही वृद्धि नहीं होती बल्कि समाजिक समरसता और आपसी मेल मिलाप की भावना भी मजबूत होती है।

मेलों के आयोजन, अपनी पुरानी विरासतों को सहेजने के प्रयास भी हैं जिनमें संस्कृति और कला का ऐसा अनूठा संगम है, जो समाज को जोड़ने तथा संस्कृति और परम्परा को सुरक्षित रखने में अहम भूमिका निभाता है।

उत्तराखंड की भौगोलिक सीमा के अंतर्गत निवास करने वाले लोग विभिन्न तिथियों और पर्वों पर अपने तीज त्यौहार परंपरागत रूप से अपनों के बीच मनाते आये हैं। लेकिन राज्य की सीमा से बाहर निकल कर दूसरे देश और परदेश में रहने वाले प्रवासियों ने जिस तरह दूसरी बोली-भाषा और संस्कृति के बीच मेले और उत्सवों के माध्यम से उत्तराखंडियत के अपने मूल अस्तित्व और अपनी संस्कृति को जीवित रखा है वह बहुत बड़ा काम है।

एक ओर मेलेे और उत्सवों ने प्रवास में उत्तराखंडी जनमानस को एक दूसरे से जोड़ने का काम किया है तो दूसरी ओर पहाड़ में मूलभूत आवश्यकताओं की कमी ने वहां बड़े पलायन को भी जन्म दिया है। साल दर साल अपनी जन्मभूमि और मातृभूमि से निकले लोग दूसरे देशों, राज्यों और शहरों में प्रवासी बने। कुछ प्रवासी निरंतर अपनी जड़ों से तो जुड़े रहे, लेकिन अधिकांश हमेशा के लिए वहीं के होकर रह गये।

हालांकि पूरे विश्व में शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार आदि अन्य कारणों से होने वाला पलायन एक सतत् चलने वाली प्रक्रिया है। सदियों से यह होता आया है। लेकिन उत्तराखण्ड से हुये स्थायी पलायन के कारण प्रवास में पैदा हुई नई पीढ़ी हमेशा के लिए जब वहीं की होकर रहने लगी तो अपनी संस्कृति, परंपरा और रिती रिवाजों से भी दूर होती चली गई। इससे केवल सांस्कृतिक परिवर्तन ही नहीं हुआ, बल्कि हमारी बोली-भाषा, पहनावा और खान-पान भी बदल गया।

पहाड़ और मैदान के बीच की दूरियां तो बढ़ी ही, रिश्ते-नाते तक पीछे छूट गयेे। इससे इतर अपना घर, जमीन और अपने पुरखों की यादों को उत्तराखण्ड में छोड़ कर देश-विदेश में अगर किसी ने पहाड़ की संस्कृति को बचाने और संरक्षित करने का काम किया है तो वह वहां बसे उत्तराखण्ड के प्रवासी और सामाजिक संगठन ही हैं।

कालान्तर में अपनी जन्मभूमि से पलायन कर विभिन्न प्रदेशों और महानगरों में प्रवासी बने उत्तराखण्ड के लोग लाखों की भीड़ में अपनी अलग और विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान से वंचित थे। उन्होंने राजनैतिक, आर्थिक और भौतिक सुख-सुविधाओं में अच्छा मुकाम तो पाया लेकिन सांस्कृतिक परंपराओं की जड़े कमजोर होती चली गयी।

पुरानी पीढ़ी अपने अंर्तमन की इस पीड़ा को दबाये हुए वर्षों छटपटाती रही। जिसे देख कुछ उत्सायी लोगों और युवाओं ने अपने बुजुर्गों के उस दर्द को महसूस करते हुए प्रवासियों को एक मंच पर एकत्र करने के लिए दिन-रात खूब पसीना बहाया और पर्वतीय लोगों का ऐसे मंच प्रदान किये जहां से उत्तराखण्ड की गौरवशाली संस्कृति को पूरा देश और दुनिया देख रही है।

लखनऊ, चंडीगढ़, दिल्ली अमृतसर, जैसे बड़े शहरों के प्रवासी संगठनों के साथ अगर मायानगरी मंुबई की बात करें तो यहां लाखों की भीड़ के बीच ‘कौथिग’ ने उत्तराखंड के प्रवासियों को नई पहचान दी।

चौदह साल पहले जिस सांस्कृतिक मंच ने उत्तराखण्ड के प्रवासियों को मुंबई में एकजुट कर नई पहचान दी वह ‘कौथिग फाउंडेशन’ आज देश-दुनियां का जाना पहचाना नाम बन गया है। क्योंकि जिस तरह उपयोगिता की दृष्टि से मेलों का देश व्यापी धार्मिक, सांस्कृतिक, आर्थिक स्वरूप होता है उसी तरह कौथिग केवल एक ‘मेला’ मात्र नहीं है बल्कि लोक संस्कृति की विभिन्न कलाओं और विधाओं को आम लोगों तक पहुंचाने का सशक्त माध्यम भी है। यह हमारे क्षेत्र की जीवंत संस्कृति को तो दिखाता ही है व्यवसायिक गतिविधियों और आपसी भाईचारे को भी बढ़ाता है।

भारत में हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक का कुंभ, राजस्थान का पुष्कर मेला, पं. बंगाल का गंगासागर मेला तथा हरियाणा का सूरजकुंड हस्तशिल्प मेला सरकारी व्यवस्थाओं के तहत होने वाले बड़े मेले हैं। लेकिन जनभागीदारी से प्रतिवर्ष आयोजित होने वाला मंुबई का ‘कौथिग’ वह बड़ा नाम और ब्रांड बन चुका है, जिसकी चर्चा आज भारत में ही नहीं देश से बाहर भी होती है। हमारी धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं से जुड़ा कौथिग व्यवसायिक दृष्टिकोण से व्यापारियों को भी अवसर प्रदान कर रहा है।

यह जनमानस में एक अपूर्व उत्साह, उमंग तथा मनोरंजन तो करता ही है, ज्ञानवर्धन का साधन बनने के कारण इससे कुछ न कुछ नया देखने और सीखने का अवसर भी नई पीढ़ी को मिलता है।

मेले और त्योहार हमें अपने पूर्वजों से विरासत में मिले हैं, जिनका आयोजन पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहता है। लेकिन मुंबई जैसे महानगर में उत्तराखंड के प्रवासियों को एक मंच पर लाकर उन्हें अपनी संस्कृति और कला से जोड़ने का भागीरथ कार्य ‘कौथिग फाउंडेशन’ ने किया है।

कौथिग मात्र एक मनोरंजन का माध्यम ही नहीं हैं अपितु ‘मेल’ और ‘ज्ञानवर्धन’ का साधन भी है जो जीवन की एकरूपता सामाप्त कर हमें प्रसन्नता से भरता है।

(लेखक वरि. पत्रकार एवं साहित्यकार हैं)

फोन- 705516528, 9412071595

Email : tcbhatt14@gmail.com

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