श्राद्ध/पितृ पक्ष पर विशेष आलेख: क्यों आवश्यक है श्राद्ध?

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आज से श्राद्ध पक्ष प्रारम्भ हो रहा है, इसलिए जान लेते हैं कि क्यों आवश्यक है श्राद्ध? श्राद्ध पक्ष लगातार सोलह दिन तक चलेगा। सामान्यतः तिथियों का क्रम लगातार है, कहीं कहीं कुतुब वेला व अपराह्न व्यापिनी तिथि में अन्तर होने से द्वितिया, तृतीया, चतुर्थी व पञ्चमी तिथि क्रमशः ग्यारह, बारह, तेरह व चौदह सितम्बर को तर्पण / श्राद्ध के लिए उपयुक्त हैं। शेष तिथियां अपने क्रम में है। यह विशिष्ठ पार्वण श्राद्ध करने वालोें के लिए चिन्तनीय है। श्राद्ध/पितृ पक्ष में पितरों का ध्यान श्राद्ध आवश्यक है।

पिता धर्मः पिता स्वर्गः पिता हि परमं तपः। पितरि प्रीतिमापन्ने प्रीयन्ते सर्वदेवताः॥

पद्मपुराण में कहा गया है कि पिता धर्म है, पिता स्वर्ग है और पिता ही सबसे श्रेष्ठ तप है। पिता के प्रसन्न हो जाने पर सम्पूर्ण देवता प्रसन्न हो जाते हैं।

पितरौ यस्य तृप्यन्ति सेवया च गुणेन च। तस्य भागीरथी स्नानमहन्यहनि वर्तते॥

जिस पितृ-भक्त का पिता अपने पुत्र की पित्र सेवा से प्रसन्न हो जाता है उसको करोड़ों-बार भागीरथी में स्नान का फल प्राप्त हो जाता है।

सर्वतीर्थमयी माता सर्वदेवमयः पिता। मातरं पितरं तस्मात् सर्वयत्नेन पूजयेत्॥

यदि पुत्र अपने जीवित माता-पिता को तीर्थ-देव समझे अर्थात:-माता को तीर्थ और पिता को तीर्थो में रमण करने वाला “परम-सत्यदेव” समझे तो उस पुत्र का “पुनर्पि जन्मं-पुनर्पि मरणं, पुनर्पि जननी जठरे शयनं” समाप्त हो जाता है।

मातरं पितरंश्चैव यस्तु कुर्यात् प्रदक्षिणम्। प्रदक्षिणीकृता तेन सप्तदीपा वसुन्धरा॥

जो पुत्र अपने माता-पिता की सेवा में रहता है उसे जो फल और पुण्य पृथ्वी की परिक्रमा से प्राप्त होता है वही पुण्य अपने माता-पिता की परिक्रमा अथवा आज्ञा का पालन करने से प्राप्त हो जाता है।

तिलकं विप्र हस्तेन, मातृ हस्तेन भोजनम्। पिण्डं पुत्र हस्तेन, न भविष्यति पुनः पुनः।।

ब्राह्मण के हाथ से तिलक, माता के हाथ से भोजन एवं पुत्र के हाथ से पिण्डदान का बार-बार सौभाग्य प्राप्त नहीं होता। इसलिए पितृपक्ष में अपने पूर्वजों का श्राद्ध/ तर्पण अवश्य करना चाहिए।

देवताभ्य: पितृभ्यश्च महायोगेभ्य एव च। नम: स्वधायै स्वहायै नित्यमेव नमोनम:।।

पितृ पक्ष पर विशेष आलेख

श्राद्ध पक्ष (पितृपक्ष, कन्यागत, महालय) प्रारम्भ हो गया है। भारतीय आध्यात्म एवं संस्कृति में इस पक्ष की महत्ता अत्यधिक है । श्राद्ध शब्द श्रद्धा से बना है। श्रद्धापूर्वक किए गए कार्य को श्राद्ध कहते हैं। सत्कार्यों के लिए, सत्पुरुषों के लिए, सद्भाव के लिए, अपने अन्दर कृतज्ञता की भावना रखना ही श्रद्धा कहलाती है। जिन लोगों ने इस मानव शरीर के लिए उपकार किया उनके प्रति आदर प्रकट करना। जिस किसी ने हमें किसी भी तरह से लाभान्वित किया है उनके लिए कृतज्ञ होना, श्रद्धावान व्यक्ति का आवश्यक कर्त्तव्य है। और इस तरह की श्रद्धा हमारे धर्म का मेरुदंड है, यदि इस श्रद्धा को हटा दिया जाय तो हिन्दू धर्म की सम्पूर्ण महत्ता समाप्त हो जाएगी और यह धर्म नि:सत्व हो जाएगा। श्राद्ध हमारे धर्म का एक अंग है अतः श्राद्ध हमारे धर्म का एक धार्मिक कृत्य है।

माता पिता और गुरु के प्रयास से बालक का विकास होता है, इन तीनों की कृपा को कोई भी व्यक्ति कम नहीं कर सकता है, भले ही आज का भौतिक वादी युग – जो कुछ मनुष्यों को धन लोलुप बना रहा है, चाहें तो इन गुरुओं की कृपा को नकारते रहें पर इनके प्रति अटूट श्रद्धा और विश्वास मन में धारण किए रहने का शास्त्रज्ञों ने आदेश किया है। अतः हम सभी उनकी वाणी को वेद वाक्य मान कर स्वीकार करते हुए तदनुरूप कार्य करते हैं। और अपने दिवंगत पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का यह धर्म कृत्य किसी न किसी रूप में पूरा करते हैैं जिससे एक आत्मसंतोष की अनुभूति अनुभव करते हैं। इस विषय पर अनेक विद्वानों ने अपने मत प्रकट किए हैं। कुछ और चिन्तन किया जाय व इस पक्ष की गूढ़ता के विषयक जानकारी करने का सूक्ष्म प्रयास किया जाय।

एकैकस्य तिलैर्मिश्रांस्त्रींस्त्रीन दद्याज्जलाज्जलीन्।
यावज्जीवकृतं पापं तत्क्षणदेव नश्यति।।

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार जब सूर्य नारायण कन्या राशि में विचरण करते हैं तब पितृलोक पृथ्वी लोक के सबसे अधिक नजदीक आता है। तिथियों के घटते बढ़ते क्रम से सिंह राशि के सूर्य से भी पितृपक्ष प्रारम्भ हो जाता है, जैसे इस वर्ष है। जो मनुष्य अपने पितरों के प्रति उनकी तिथि पर अपनी सामर्थ्य के अनुसार फलफूल, अन्न, मिष्ठान आदि से ब्राह्मणों को भोजन कराते हैं। उन पर पितर प्रसन्न होकर उन्हें आशीर्वाद देकर जाते हैं। पितरों के लिए किए जाने वाले श्राद्ध दो तिथियों पर किए जाते हैं, प्रथम मृत्यु या क्षय तिथि पर (एकोदिष्ट) और द्वितीय पितृ पक्ष में जिस तिथि को माता पिता या अन्य किसी पूर्वज की मृत्यु हुई है अथवा जिस तिथि को उसका दाह संस्कार हुआ है, उस तिथि को पितृपक्ष में। वर्ष में उस तिथि को एकोदिष्ट श्राद्ध में केवल एक पितर की संतुष्टि के लिए श्राद्ध किया जाता है। इसमें एक पिंड का दान और एक ब्राह्मण को भोजन कराया जाता है। पितृपक्ष में जिस तिथि को पितर की मृत्यु तिथि आती है, उस दिन पार्वण श्राद्ध किया जाता है। किन्तु आज कल श्राद्ध पक्ष में केवल पितृ तर्पण ही किया जाता है, पार्वण नहीं। पार्वण श्राद्ध में 9 ब्राह्मणों तथा कन्याओं को भोजन कराने का विधान है, किंतु शास्त्र किसी एक सात्विक एवं संध्यावंदन करने वाले ब्राह्मण को भोजन कराने की भी आज्ञा देते हैं।

इस सृष्टि में हर चीज का अथवा प्राणी का जोड़ा है। जैसे- रात और दिन, अँधेरा और उजाला, सफ़ेद और काला, अमीर और गरीब अथवा नर और नारी इत्यादि बहुत गिनवाये जा सकते हैं। सभी चीजें अपने जोड़े से सार्थक है अथवा एक-दूसरे के पूरक है। और दोनों एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं। इसी तरह दृश्य और अदृश्य जगत का भी जोड़ा है। दृश्य जगत वो है जो हमें दिखता है और अदृश्य जगत वो है जो हमें नहीं दिखता। ये भी एक-दूसरे पर निर्भर है और एक-दूसरे के पूरक हैं। पितृ-लोक भी अदृश्य-जगत का हिस्सा है और अपनी सक्रियता के लिये दृश्य जगत के द्वारा किए श्राद्ध पर निर्भर है।
धर्म ग्रंथों के अनुसार श्राद्ध के सोलह दिनों में लोग अपने पितरों को जल देते हैं तथा उनकी मृत्युतिथि पर श्राद्ध करते हैं। ऐसी मान्यता है कि पितरों का ऋण श्राद्ध द्वारा चुकाया जाता है। वर्ष के किसी भी मास तथा तिथि में स्वर्गवासी हुए पितरों के लिए पितृपक्ष की उसी तिथि को श्राद्ध किया जाता है।

पूर्णिमा पर देहांत होने से भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा को श्राद्ध करने का विधान है। इसी दिन से महालय (श्राद्धपक्ष) का प्रारंभ माना जाता है। श्राद्ध का अर्थ है श्रद्धा से जो कुछ दिया जाए। पितृपक्ष में श्राद्ध करने से पितृगण वर्षभर तक प्रसन्न रहते हैं। धर्म शास्त्रों में कहा गया है कि पितरों का पिण्ड दान करने वाला गृहस्थ दीर्घायु, पुत्र-पौत्रादि, यश, स्वर्ग, पुष्टि, बल, लक्ष्मी, पशु, सुख-साधन तथा धन-धान्य आदि की प्राप्ति करता है।

श्राद्ध में पितरों को आशा रहती है कि हमारे पुत्र-पौत्रादि हमें पिण्ड दान तथा तिलांजलि प्रदान कर संतुष्ट करेंगे। इसी आशा के साथ वे पितृलोक से पृथ्वीलोक पर आते हैं। यही कारण है कि हिंदू धर्म शास्त्रों में प्रत्येक हिंदू गृहस्थ को पितृपक्ष में श्राद्ध अवश्य रूप से करने के लिए कहा गया है।

श्राद्ध से जुड़ी कई ऐसी बातें हैं जो बहुत कम लोग जानते हैं। मगर ये बातें श्राद्ध करने से पूर्व जान लेना बहुत जरूरी है क्योंकि कई बार विधिपूर्वक श्राद्ध न करने से पितृ गण श्राप भी दे देते हैं।

पितरों की संतुष्टि के उद्देश्य से श्रद्धापूर्वक किये जाने वाले तर्पण, ब्राह्मण भोजन, दान आदि कर्मों को श्राद्ध कहा जाता है। इसे पितृयज्ञ भी कहते हैं। श्राद्ध के द्वारा व्यक्ति पितृऋण से मुक्त होता है और पितरों को संतुष्ट करके स्वयं की मुक्ति के मार्ग पर बढ़ता है।

श्राद्ध या पिण्डदान दोनों एक ही शब्द के दो पहलू है पिण्डदान शब्द का अर्थ है अन्न को पिण्डाकार में बनाकार पितर को श्रद्धा पूर्वक अर्पण करना इसी को पिण्डदान कहते हैं। दक्षिण भारत में पिण्डदान को श्राद्ध कहते हैं।

श्राद्ध के प्रकार :-

शास्त्रों में श्राद्ध के निम्नलिखित प्रकार बताये गए हैं।।
1- नित्य श्राद्ध :- वे श्राद्ध जो नित्य-प्रतिदिन किये जाते हैं, उन्हें नित्य श्राद्ध कहते हैं. इसमें विश्वदेव नहीं होते हैं।
2- नैमित्तिक या एकोदिष्ट श्राद्ध :- वह श्राद्ध जो केवल एक व्यक्ति के उद्देश्य से किया जाता है. यह भी विश्वदेव रहित होता है. इसमें आवाहन की क्रिया नहीं होती है. एक पिण्ड, एक अर्ध्य, एक पवित्रक होता है। एकोदिष्ट श्राद्ध केवल क्रिया कर्ता ही करता है, वर्ष भर किए जाने वाले मासिक, पाक्षिक आदि श्राद्ध भी केवल क्रिया कर्ता द्वारा सम्पादित किए जाते हैं, श्राद्धकर्म में लोकरंजन या दिखावा केवल अहं को प्रदर्शित करते हैं।
3- काम्य श्राद्ध :- वह श्राद्ध जो किसी कामना की पूर्ति के उद्देश्य से किया जाता है, काम्य श्राद्ध कहलाता है।
4- वृद्धि (नान्दी) श्राद्ध :- मांगलिक कार्यों ( पुत्रजन्म, विवाह आदि कार्य) में जो श्राद्ध किया जाता है, उसे वृद्धि श्राद्ध या नान्दी श्राद्ध कहते हैं*।
5- पावर्ण श्राद्ध :- पावर्ण श्राद्ध वे हैं जो आश्विन कृष्ण पक्ष के पितृपक्ष में, प्रत्येक मास की अमावस्या आदि पर किये जाते हैं। ये विश्वदेव सहित श्राद्ध हैं।
6- सपिण्डन श्राद्ध :- वह श्राद्ध जिसमें प्रेत-पिंड का पितृ पिंडों में सम्मलेन किया जाता है, उसे सपिण्डन श्राद्ध कहा जाता है।
7- गोष्ठी श्राद्ध :- सामूहिक रूप से जो श्राद्ध किया जाता है, उसे गोष्ठीश्राद्ध कहते हैं।
8– शुद्ध्यर्थ श्राद्ध :- शुद्य्रर्थ श्राद्ध वे हैं, जो शुद्धि के उद्देश्य से किये जाते हैं।
9- कर्मांग श्राद्ध :- कर्मांग श्राद्ध वे हैं, जो षोडश संस्कारों में किये जाते हैं।
10- दैविक श्राद्ध :- देवताओं की संतुष्टि के उद्देश्य से जो श्राद्ध किये जाते हैं, उन्हें दैविक श्राद्ध कहते हैं*।
11- यात्रार्थ श्राद्ध :- यात्रा के उद्देश्य से जो श्राद्ध किया जाता है, उसे यात्रार्थ कहते हैं*।
12- पुष्टयर्थ श्राद्ध :- शारीरिक, मानसिक एवं आर्थिक पुष्टता के लिये जो श्राद्ध किये जाते हैं, उन्हें पुष्टयर्थ श्राद्ध कहते हैं।
13- श्रौत-स्मार्त श्राद्ध :- पिण्डपितृयाग को श्रौत श्राद्ध कहते हैं, जबकि एकोदिष्ट, पावर्ण, यात्रार्थ, कर्मांग आदि श्राद्ध स्मार्त श्राद्ध कहलाते हैं।

कब किया जाता है श्राद्ध?

श्राद्ध की महत्ता को स्पष्ट करने से पूर्व यह जानना भी आवश्यक है की श्राद्ध कब किया जाता है. इस संबंध में शास्त्रों में श्राद्ध किये जाने के निम्नलिखित अवसर बताये गए हैं।
1- आश्विन कृष्ण पक्ष के पितृपक्ष के 16 दिनों में।
2- वर्ष की 12 अमावस्याएं तथा अधिक मास की अमावस्या।
3- वर्ष की 12 संक्रांतियों में।
4- वर्ष में 4 युगादि तिथियों में।
5- वर्ष में 14 मन्वादि तिथियों में।
6- वर्ष में 12 वैधृति योगों में।
7- वर्ष में 12 व्यतिपात योगों में।
8- पांच अष्टका।
9- पांच अन्वष्टका।
10- पांच पूर्वेघु।
11- तीन नक्षत्र: रोहिणी, आर्द्रा, मघा।
12- एक करण : विष्टि।
13- दो तिथियाँ : अष्टमी और सप्तमी।
14- ग्रहण : सूर्य एवं चन्द्र ग्रहण।
15- मृत्यु या क्षय तिथि।

किसके निमित्त कौन कर सकता है श्राद्ध?

हिन्दू धर्म में मरणोपरांत संस्कारों को पूरा करने के लिए पुत्र का प्रमुख स्थान माना गया है। शास्त्रों में लिखा है कि नरक से मुक्ति पुत्र द्वारा ही मिलती है। इसलिए पुत्र को ही श्राद्ध, पिंडदान का अधिकारी माना गया है, नरक से रक्षा करने वाले पुत्र की कामना हर मनुष्य करता है। ‘पुन्नाम नरकात् त्रायते इति पुत्र:‘ इसलिए यहां जानते हैं कि शास्त्रों के अनुसार पुत्र न होने पर कौन-कौन श्राद्ध का अधिकारी हो सकता है।

1- पिता का श्राद्ध पुत्र को ही करना चाहिए।
2- पुत्र के न होने पर पत्नी श्राद्ध कर सकती है।
3- पत्नी न होने पर सगा भाई और उसके भी अभाव में संपिंडों को श्राद्ध करना चाहिए।
4- एक से अधिक पुत्र होने पर सबसे बड़ा पुत्र श्राद्ध करता है।
5- पुत्री का पति एवं पुत्री का पुत्र भी श्राद्ध के अधिकारी हैं।
6- पुत्र के न होने पर पौत्र या प्रपौत्र भी श्राद्ध कर सकते हैं।
7- पुत्र, पौत्र या प्रपौत्र के न होने पर विधवा स्त्री श्राद्ध कर सकती है।
8- व्यक्ति अपनी पत्नी का श्राद्ध तभी कर सकता है, जब कोई पुत्र न हो।
9- पुत्र, पौत्र या पुत्री का पुत्र न होने पर भतीजा भी श्राद्ध कर सकता है।
10- गोद में लिया पुत्र भी श्राद्ध का अधिकारी है।
11- कोई न होने पर राजा को उसके धन से श्राद्ध करने का विधान है।

क्यों आवश्यक है श्राद्ध?

इस संबंध में निम्नलिखित तर्क दिए जा सकते हैं :—
1- श्राद्ध पितृ ऋण से मुक्ति का माध्यम है।
2- श्राद्ध पितरों की संतुष्टि के लिये आवश्यक है।
3- महर्षि सुमन्तु के अनुसार श्राद्ध करने से श्राद्धकर्ता का कल्याण होता है।
4- मार्कण्डेय पुराण के अनुसार श्राद्ध से संतुष्ट होकर पितर श्राद्धकर्ता को दीर्घायु, संतति, धन, विद्या, सभी प्रकार के सुख और मरणोपरांत स्वर्ग एवं मोक्ष प्रदान करते हैं।
5- अत्रि संहिता के अनुसार श्राद्धकर्ता परमगति को प्राप्त होता है।
6- यदि श्राद्ध नहीं किया जाता है, तो पितरों को बहुत ही दुःख होता है।
7- ब्रह्मपुराण में उल्लेख है की यदि श्राद्ध नहीं किया जाता है, तो पितर श्राद्ध करने वाले व्यक्ति को शाप देते हैं और उसका रक्त चूसते हैं। शाप के कारण वह वंशहीन हो जाता अर्थात् वह पुत्र रहित हो जाता है, उसे जीवनभर कष्ट झेलना पड़ता है, घर में बीमारी बनी रहती है। श्राद्ध-कर्म शास्त्रोक्त विधि से ही करें पितृ कार्य कार्तिक या चैत्र मास मे भी किया जा सकता है।

श्राद्ध में कुश और तिल का महत्व

दर्भ या कुश को पृथ्वी, जल और वनस्पतियों का सार माना जाता है। यह भी मान्यता है कि कुश और तिल दोंनों विष्णु के शरीर से निकले हैं। गरुड़ पुराण के अनुसार, तीनों देवता ब्रह्मा, विष्णु, महेश कुश में क्रमश: जड़, मध्य और अग्रभाग में रहते हैं। कुश का अग्रभाग देवताओं का, मध्य भाग मनुष्यों का और जड़ पितरों का माना जाता है। तिल पितरों को प्रिय हैं और दुष्टात्माओं को दूर भगाने वाले माने जाते हैं। मान्यता है कि बिना तिल बिखेरे श्राद्ध किया जाय तो दुष्टात्मायें हवि को ग्रहण कर लेती हैं।’ अतः श्राद्ध नियमानुसार व विधि विधान से श्रद्धापूर्वक करना चाहिए।

*आचार्य हर्षमणि बहुगुणा

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