पंडित जवाहरलाल नेहरू जी की पुण्यतिथि (27मई) पर स्मरणार्थ, उनकी वसीयत के अंश: मुझे अपने देशवासियों से इतना प्यार और स्नेह मिला है कि मैं उनकी कितनी भी सेवा करूं मैं उनके एक अंश का भी प्रतिपादन न कर पाऊंगा, और स्नेह जैसी बहुमूल्य वस्तु का प्रतिपादन हो भी नहीं सकता।
बहुत से लोगों की प्रशंसा की गई है। कुछ की पूजा भी की गई है ।लेकिन भारत के हर तबके के लोगों ने से मुझे इतना प्यार मिला है कि मैं उससे अभिभूत हो गया हूं। मैं केवल यह आशा व्यक्त कर सकता हूं कि अपने जीवन के शेष काल में मैं अपने देशवासियों के प्यार और स्नेह की अयोग्य सिद्ध न हो पाऊं।
अनेक साथियों और सहयोगियों का मेरे ऊपर और भी बड़ी कृतज्ञता का ऋण है । हम बड़े बड़े कामों में हिस्सेदार रहे हैं और उन में हमें जो सफलता विफलता मिली है, हमने इसमें हिस्सा बंटया है ।
मैं सचमुच पूरे यकीन के साथ या घोषित कर देना चाहता हूं कि मेरी मृत्यु के बाद कुछ भी धार्मिक संस्कार नहीं किए जाने चाहिए। मैं ऐसे किसी संस्कार में विश्वास नहीं करता हूं और केवल औपचारिकता के लिए उनको शिरोधार्य कर लेना एक वंचना होगी और अपने आप को और दूसरों को धोखा देना होगा ।
जब मेरा देहांत हो तो मैं चाहूंगा कि मेरे शव का दाह किया जाए । यदि मेरी मृत्यु विदेश में हो तो मेरी देह का दाह संस्कार वही करके मेरी भष्मी इलाहाबाद भेजी जाए। इस भश्मी का कुछ हिस्सा गंगा में विसर्जित कर दिया जाए और उसका बाकी अधिकांश भाग नीचे लिखे तरीके से विसर्जित कर दिया जाए । इस भष्मि का कुछ भी अंश बचाया या सुरक्षित नहीं रखा जाना चाहिए।
अपनी भष्मी का मुट्ठी भर अंश गंगा में डालने की इच्छा का कोई धार्मिक महत्व नहीं है। जहां तक मेरा सवाल है इस मामले में मेरी कोई धार्मिक भावना नहीं है। इलाहाबाद में अपने बचपन से ही गंगा और यमुना से मेरा नाता रहा है और जैसा मैं बड़ा हुआ हूं यह नाता तभी बढ़ता गया है। मैंने उसके बदलते हुए रूपों को देखा और अक्सर मैं इसके बारे में कहे जाने वाले इतिहास ,पुराण कथा तथा गीत और कहानियों की बात भी सोचता रहा हूं। यह सब इतने बरसों से उसके बहते हुए पानी के सामान ही उसका हिस्सा बन गए हैं।
विशेष रूप से गंगा भारत की विशिष्ट नदी है और देश की जनता की प्यारी नदी है। उस जनता की जातिगत कथाएं, आशा निराशा, विजय जीत और हार जीतें गंगा के साथ संबंध रही है। वह भारत की नदियों में पुरानी संस्कृति सभ्यता का प्रतीक रही है। वह बहती रही। सदा धारा बदलती रही है फिर भी सदा वह गंगा बनी रही।
वह मुझे हिमालय की चोटियों और गहरी घाटियों की याद दिलाती है जिन्हें मैं इतना प्यार करता रहा हूं और यह उन समृद्ध और फैले हुए मैदानों की याद दिलाती है। जहां मुझे जीवन मिला और जो मेरी कर्म भूमि रही । उषा की किरणों मे वह किलकती और मुस्कुराती रही और संध्या के छिटपुट में उसे गहन तमसाछिन्न और रहस्य पूर्ण बनाया है। जाड़ों में वह छोटी सी धीमी और सुंदर पतली धार बनकर रह गई है और वर्षा ऋतु में विस्तृत होकर लगभग समुद्र जैसे विस्तार और गर्जना वाली हो गई है और उसे सागर की विनाशा शक्ति का भी कुछ अंश मिल गया है।
इस प्रकार गंगा सदैव मेरे लिए भारत की भविष्य की स्मृति और प्रतीक के रूप में रही है। जो वर्तमान में भी प्रभाव मान है और भविष्य के महासागर में विलीन होती जा रही है और मैंने यद्यपि अतीत की अनेक प्रथाओं, परंपराओं को छोड़ दिया है और हमेशा यही चाहता हूं कि भारत अपने उन सब बेड़ीयो को तोड़ दे जो उसके निवासियों को जकड़ती या बांध के रखे हैं । जो बहुत से लोगों को पद दलित करती रहीं हैं और उनके देह और मस्तिष्क के अवाध विकास को रोकती रही हैं। यद्यपि मैं इन सब को छोड़ देना चाहता हूं फिर भी मैं अपने आप को भारत के अतीत से सर्वथा विछिन्न कर देने की बात नहीं सोच सकता।
मुझे अपनी इस महान विरासत पर गर्व है और मैं यह भी जानता हूं कि मैं भी और लोगों की तरह ही मै भी उसी श्रृंखला की ही एक कड़ी हूं , जो भारत के स्मृति अतीत युग से भारत के इतिहास के अरुणोदय से हमें जोड़ती है। मैं वह श्रंखला को नहीं तोड़ सकता क्योंकि मैं उसकी कदर करता हूं और अपनी इस आकांक्षा के हिसाब से के रूप में ,और भारत के सांस्कृतिक विरासत के प्रति अपनी अंतिम श्रद्धांजलि के रूप में भी यह अनुरोध कर रहा हूं कि मेरी मुट्ठी भर राख इलाहाबाद में गंगा में विसर्जित कर दी जाए। जिससे वह उस भारत के चरण पखारने वाले महासागर तक ले जा सके।
मेरी भष्मी में का अधिकांश भाग दूसरे रूप में विसर्जित किया जाना चाहिए। मैं चाहता हूं कि इसे विमान मे ऊपर आसमान में काफी ऊपर ले जाए जाए और उस ऊंचाई से भारत के मैदानों में बिखेर दिया जाए जिससे वह भारत की धूल और मिट्टी में मिल जाए और भारत का अभिन्न अंग बन जाए।
26 जून 1954 (जवाहरलाल नेहरू)
साभार : नेहरू स्मारिका से।
कवि : सोमवारी लाल सकलानी निशांत