पुस्तक समीक्षा
गढ़वाली साहित्य के लिए मील का पत्थर है, डा अनिल डबराल का शोध प्रबंध “गढ़वाली गद्य परंपरा” यह कहना अतिशयोक्ति न होगा। 28 अप्रैल सन 2017 को परिषदीय परीक्षा मूल्यांकन केंद्र -नरेंद्रनगर टिहरी गढ़वाल में डॉ अनिल डबराल से आंशिक भेंट हुई। विद्वतजन के बारे में औपचारिक बातचीत के दौरान, डॉ शिव प्रसाद डबराल, डॉ नागेंद्र ध्यानी’ अरुण ‘आदि का भी नामोल्लेख हुआ। मैं नहीं समझता कि डॉ अनिल डबराल ने मुझे किस रूप में समझा और अगले दिन अपना शोध प्रबंध “गढ़वाली गद्य परंपरा (इतिहास से वर्तमान)” भेंट स्वरूप एक पुस्तक प्रदान की।
साहित्य से मेरा जन्मजात रिश्ता रहा है। अंग्रेजी का प्रवक्ता होते हुए भी हिंदी साहित्य, संस्कृत साहित्य, गढ़वाली साहित्य आदि के प्रति भी एक प्रकार का लगाव है। डॉ अनिल डबराल की पुस्तक भी मेरे लिए अनमोल धरोहर है। मूल्यांकन कार्य पूरा हो जाने के बाद मैंने सम्यक रूप से इस पुस्तक का अध्ययन किया। दो भागों में और अनेक उपखंडों में, विभक्त सामग्री उद्धृत है। जैसे की पुस्तक के नाम से यह स्पष्ट है कि यह पुस्तक गढ़वाली के गद्य साहित्य से संबंधित है लेकिन यह कोई मौलिक रचना नहीं है, नहीं यह किसी विधा पर वर्णित है। यह शोध ग्रंथ है और बड़ी लगन व मेहनत के द्वारा पुस्तक के रूप में तैयार किया गया है। भाषा व साहित्य दोनों ही दृष्टि से उपयोगी है ।
शोध प्रबंधन की भूमिका भौगोलिक, ऐतिहासिक तथा आंचलिक रूप से सुंदर व संगत है। लोक जीवन, लोक संस्कृति व लोक साहित्य का सुंदर समन्वय है। साहित्यिक शोध के अतिरिक्त यह पुस्तक ऐतिहासिक तथ्यों से भरी पड़ी है, जो कि अतीत से आधुनांत तथा गढ़वाल के जीवन का जीवंत स्वरूप है। अनेक लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकारों, उनके संदर्भ ग्रंथों, अनुश्रुतियों के द्वारा डॉ अनिल ने अपने शोध के द्वारा क्रम बढ़ाया है ।
गढ़वाली साहित्य पर लिखा गया यह ग्रंथ अनेक शोध प्रबंधों में अनूठा है। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि अत्यंत रोचक है। शक, खस, कीरत, यक्ष, भील आदि जातियों के प्रभाव से लेकर स्वतंत्रता प्राप्ति तक के गद्य साहित्य की खोज की गई है। दृष्टांत के रूप में गढ़ मनीषियों के अलावा पाश्चात्य विद्वानों द्वारा किए गए कार्य का भी उल्लेख किया गया है। कोई भी ऐसा पहलू नहीं है जिस पर शोधकर्ता की पैनी दृष्टि न गई हो। गद्य साहित्य के विकास पर विभिन्न भाषाओं का प्रभाव आदि का वैज्ञानिक रूप से प्रस्तुतीकरण किया गया है। वैदिक काल से चौदहवीं शताब्दी और उसके पश्चात गढ़वाली साहित्य का विकास, उसका स्वरूप, अनेक ताम्रपत्र, अभिलेख, पत्रों व सूचियों के द्वारा योजनाबद्ध ढंग से वर्णित किया गया है। शिलालेखों, मुद्राओं, वास्तुकला, खोज कर के लेखक ने अनेक तथ्यों को उजागर किया है, जो कि गढ़वाली साहित्य के लिए मील का पत्थर है।
432 पृष्ठ का यह शोध प्रबंध, गढ़वाली लोक साहित्य का समग्र ग्रंथ है। शोध ग्रंथ होने पर भी लेखक ने किस प्रकार परिवर्धित नहीं किया है कहीं पर भी नीरसता परिलक्षित नहीं होती है। शोध प्रबंधन का अध्ययन करते समय जिस सच्चाई से मैं रूबरू हुआ, वह जिसे मैंने अपने भौगोलिक परिवेश में पूर्ण पाया, वह उसमें चार चांद लगाने जैसा है। मोहन लाल नेगी, डॉ महावीर प्रसाद गैरोला, डॉक्टर गोविंद चातक, गुणानंद पथिक, नवीन नौटियाल, शूरवीर सिंह पवार, जीत सिंह नेगी आदि से साहित्य संबंध रहा है। इसके अतिरिक्त जिन साहित्यकारों की पुस्तकों व्यक्तित्व का अध्ययन किया वह मूर्त रूप में आंखों के आगे मानस पटल पर तैरने लगते हैं।
डॉ अनिल डबराल एक ऐसे परिवार से संबंधित हैं, जिनके रग-रग में ज्ञान भरा है। ऐसे परिवेश से हैं, जिनके संस्कार में साहित्य हैं। ऐसे लोगों से जुड़े हैं, जिनके कलम में धार है। जीभ में सरस्वती है। डॉक्टर अनिल उन्हीं में से एक हैं, जिनके साहित्य, इतिहास का मैं कायल हूं।
नई पीढ़ी के मनीषियों में डॉक्टर अनिल बेहतर कार्य करेंगे, ऐसा यह शोध प्रबंधन को पढ़ने के बाद मेरा अनुमान है। गढ़वाली गद्य की खोज के अंतर्गत ,लेखक ने गढ़वाली लोक साहित्य जैसे जागर, वार्ताएं, रखवाली नाथपंथी मंत्र आदि का उल्लेख अनेक संदर्भ से प्राप्त कर वर्णित किया है।
इस कार्य के लिए अथक परिश्रम किया होगा, क्योंकि यह कार्य स्थलीय शोध अधिक प्रतीत होता है। लेखक ने लोक कथाओं और लोक जीवन से अनेक लघुकथाएं, तथ्यपरक ढंग से संकलित की है ।अनेक गाथाएं भी पुस्तक में समाहित हैं। देवी देवताओं, भूत प्रेतों से लेकर लौकिक और पारलौकिक जीवन पर आधारित यह गढ़वाली कथाएं वह गाथाएं हैं जो निष्क्रिय और मृत पड़ी हुई थी, डॉ अनिल ने विस्तृत ब्यौरा प्रस्तुत किया है।
लुग्त्यार बछुर, हल पर माछा, प्रधान काका, खुपरी क्या करांति आदि। गढ़वाली गद्य के अंतर्गत कहानी, उपन्यास विधा पर भी प्रकाश डाल कर, ऐसे कहानी कारों व कथा लेखकों को स्थान दिया है, जिनसे मेरा निकट का संबंध रहा है। जैसे प्रताप शिखर, मोहन लाल नेगी, कुंवर प्रसून आदि।
“कुरेडी फटगी” प्रताप शिखर की चुनिंदा कहानियों में से एक है ,जो कि ‘उगते सूरज की किरणें’ भी संकलित हैं। धांगा की आत्मकथा। साहित्य में अपना अनूठा स्थान रखती है।
समग्र रूप से लेखक ने गढ़वाली काव्य परंपरा के अंतर्गत कोई भी विधा अछूती नहीं रखी। अपने शोध ग्रंथ में अनेक सृजनात्मक पहलुओं को भी निरूपित किया है।गढ़वाली नाटक, निबंध साहित्य, यात्रा संस्मरण, रिपोतार्ज को ग्रंथ में स्थान दिया है। गढ़वाल हिमालय की उपत्यकाओं, डांडी कांठी, धार खालों में अनेक विभूतियों ने जन्म लिया है। जिन्होंने अपनी लोक धरोहर को अक्षुण्ण रखने के आजीवन प्रयास किया। उदर पूर्ति को यह लक्ष न माना। भौतिकवाद की विद्रूप छाया उन्हे न घेर सकी।
अपनी माटी, संस्कृति, समाज, भाषा, बोली व लोक जीवन से उनका नाता रहा है। ऐसे महान पुरुषों ने समय-समय पर साहित्यकारों के रूप में, गढ़वाल उत्तराखंड उन्होंने नाम रोशन किया है। चाहे वे डॉ पीतांबर दत्त बडथ्वाल हों या डॉक्टर शिव प्रसाद डबराल।डॉ नागेंद्र ध्यानी या डॉक्टर सुशील कोटनाला। डॉ मुनिराम सकलानी या डॉ अनिल डबराल आदि ने उसी परंपरा को आगे बढ़ाने का प्रयास किया है।
“गढ़वाली गद्य परंपरा” शोध प्रबंध, छात्रों, शिक्षकों, साहित्य प्रेमियों,प्रत्येक गढ़वाली के लिए प्रेरणास्पद होगा। डॉ अनिल डबराल को इस उपयोगी कार्य के लिए साधुवाद।
*समीक्षक- सोमवारी लाल सकलानी ‘ निशांत’