अनियोजित विकास और भोग लिप्सा के कारण कहर बरपाती है कुदरत

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    अनियोजित विकास और भोग लिप्सा के कारण कहर बरपाती है कुदरत
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    हम शुद्ध और स्वच्छ जल पीना चाहते हैं। शुद्ध हवा में सांस लेना चाहते हैं। वसुंधरा का हरित आंचल देखना चाहते हैं। मनमोहक हिमानियों को निहारना चाहते हैं। दूर तक फैली हुई शुभ्र हिमाच्छादित चोटियों को देेखना चाहते हैं। सदानीरा नदियों का जल, सुंदर समीर, सूर्यामिताभ, पक्षियों के कलरव स्वर सुनना चाहते हैं। नाना प्रकार के कंद मूल फल, अन्न और फसलें का उपयोग करना चाहते हैं। सुरक्षित जीवन जीना चाहते हैं। शांति और सुव्यवस्थित जीवन की बात करते हैं। क्या हम इन सब बातों पर अमल करते हैं? कदापि नहीं।

    *सोमवारी लाल सकलानी ‘निशांत

    भौतिकवाद की अंधी होड़ में पागल होकर हमने पृथ्वी को कुरुप बना लिया है। हमारा वातावरण दूषित है। जल स्रोत खत्म होते जा रहे हैं। भूमिगत जल काफी नीचे चला गया है। नदिया. सूखी रेत के टीले या बरसात में कहर बरपाती आ रही हैं। अनेक प्रकार की आपदाओं का शिकार मनुष्य ही नहीं बल्कि समूचा प्राणी जगत बनता जा रहा है। इन सब के पीछे का क्या कारण है? अनियोजित विकास। मुनाफाखोरी। सरकार में बैठे हुए लोगों की भोगलिप्सा। भू माफिया और ठेकेदारों की करतें। हमारी कुदरत सुविधाओं के नाम पर किया जाने वाला संसाधनों का अंधाधुंध दोहन। तथाकथित विकास के नाम पर मानकीकृत कुचक्र। दूरगामी सोच का अभाव और कानून व्यवस्था का चौपट हाल। यह तमाम बातें हमें आज आदम युग से भी पीछे ले जाती हैं।

    मूर्ख विकासवाद के नाम पर हमने संसाधनों का इस प्रकार से दोहन किया कि हमने आने वाली पीढ़ी के लिए कुछ बचा के रखा ही नहीं है। शीर्ष से धरातल तक भ्रष्टाचार का बोलबाला है और जब आपदाएं उत्पन्न होती हैं तो हम सारा दोष प्रकृति के मत्थे मढ़ लेते हैं जबकि असली दोषी हम हैं। हमारी सरकारें हैं। लुंज प्रशासन है। जहां अनैतिक, असंगत और अवैधानिक कार्य करने वालों की भरमार है।

    30% लोग देश के संसाधनों पर डाका डाले हुए हैं और 70% जनसंख्या उपकरणों के रूप में कार्य कर रही है। 70% जनसंख्या भी कम दोषी नहीं है क्योंकि उनका मकसद संख्या बल बढाना और आने वाली पीढ़ी को त्रासदी के संकट में डालना मात्र बन गया है। संपूर्ण विश्व में एक विकृत चेहरा नजर आ रहा है। कहने के लिए विकसित, विकासशील और अविकसित कैटेगरी हमने बना ली हैं लेकिन कमोबेश हालात एक जैसे ही हैं।

    हमारा गंदा आचरण हमारी असलियत पर पर्दा डाले हुए है और जिसके कारणस्वरूप हमारे अहंकार को दंड देने के लिए प्रकृति कहर बरपा रही है।
    युद्ध, प्राकृतिक प्रकोप, आतंकवाद, साम- दाम -दंड -भेद की नीतियां, तथाकथित उच्च वर्ग का अहंकार का कुरूप चेहरा आज प्रत्यक्ष रुप से दिखाई देता है।

    पर्वतीय क्षेत्रों का निवासी होते हुए जीवन भर पर्वतीय क्षेत्रों से सरोकार रहा है। छह दशक से ज्यादा समय से प्रकृति जल- जंगल -जमीन और प्राणी मात्र की परिकल्पना करता आया हूं लेकिन जब देखता हूं कि चारों तरफ खालीपन, हर बरसात में भूस्खलन, खल्वाट होते हुए पहाड़ और उच्च हिमालई क्षेत्रों से आने वाली नदियों का प्रहार झेलते आ रहे हैं। गर्मियों में आग से धू -धू करते हुए जंगल,शीत ऋतु में भी टूटते हुए ग्लेशियर, मानवीय कुकृृत्य के कारण दंड देने के लिए साक्षात खड़े हैं। इतना ही नहीं केदारनाथ त्रासदी को हम भूल जाते हैं। गोना ताल जैसी महा त्रासदी को हमने भुला दिया।

    समय- समय पर आने वाले भूकंप और उजड़ते पर्वतों को हम नजरअंदाज कर देते हैं। हर वक्त कहर बरपाने में वाली आपदा के नुकसान को हम भुला बैठते हैं। यहां तक कि सुना है कि बद्रीनाथ धाम में तक दरार पड़ गई है। यह सब मानव अपनी करनी का दंड भुगत रहा है। इसके पीछे मेरा कोई धार्मिक मिथक नहीं है बल्कि वैज्ञानिक कल्पना है।

    बाल्यकाल में हमारी प्रकृति के अनुरूप अधिवास थे। कच्चे रास्ते, खेती की जमीन, सदानीरा जल स्रोत, अपने प्रवाह तंत्र पर बहती हुई नदियां तथा सघन वन क्षेत्र था। मैदानी इलाके भी पहाड़ी रक्षा कवच के द्वारा सुरक्षित थे। लेकिन भोग लिप्सा के कारण धन्नाओं को सुख पहुंचाने के लिए, प्रकृति के संसाधनों पर कब्जा करने के लिए, हमने क्या कुकृत्य नहीं किए हैं ! चारों ओर पर्वत की छाती को छलनी कर दिया है। जंगलों का नाश कर लिया है। जल स्रोतों को सुखा दिया है। पहाड़ों को खुर्द बुुर्द कर मानव ने स्वयं अपनी कब्र बना ली है और यही कारण है कि आज 2 घंटे की वर्षा के कारण भी कयामत आ रही है। मौसम वैज्ञानिक दोष दे रहे हैं कुदरत को। कहते हैं बादल फटने के कारण हुआ। भाई! पहले भी बादल पढ़ते थे, वज्रपात भी होता था, भूकंप भी होते थे, लेकिन तब माननीय भावना इतनी असंवेदनशील नहीं थी जितने कि आज है।

    बासमती चावल और लीची के लिए प्रसिद्ध देहरादून की घाटी आज कंक्रीटो के महल के रूप में तब्दील हो चुकी है। सौन्ग घाटी जो संपूर्ण देहरादून को शुद्ध जल उपलब्ध कराती थी,आज सैलाब बनकर फुंकार रही है। जीवन को निकल रही है। अर्थव्यवस्था को खत्म करने पर तुली हुई है। हाल में ही सौन्ग नदी में आई हुई बाढ़ (बादल फटने की घटनाएं) कोई नई बात नहीं है। 80 के दशक में जब भू -माफियाओं, खनन माफियाओं, पत्थरचट्टों और धन्नाओं के द्वारा सकलाना घाटी, मसूरी के आसपास के क्षेत्र, का अंधाधुंध दोहन किया गया। लाइमस्टोन और डोलोमाइट ,फास्फेट के चक्कर में सारे पहाड़ों की पारिस्थितिकी ही बिगाड़ दी। दिन- रात दुबडा,दुबडी,घुत्तू, हाथी-पांव, मसूरी, सुवाखोली लामीधार आदि से हजारों ट्रक लाइमस्टोन, फॉस आदि अनेक खनिज पदार्थों के भर -भर कर फैक्ट्रियों मे जाने लगे तो पहाड़ खल्वाट हो गए। अनियोजित सड़कों का जाल बिछने लगा। रेड़ा -घेड़ा और रवाड के कारण जल जमीन जमींदोज हो गए। पुश्तैनी घाट घराट और खेती नेस्तनाबूद हो गई और मौज माफिया ने मनाई। इसका परिणाम यह हुआ कि 80 के दशक में सौन्ग घाटी ने रगड़ गांव के आसपास कहर बरपाया। जमीन से निकले बहुमूल्य धातु मार्बल चिप्स के ट्रक के ट्रक भर -भर कर के कारखानों में जाने लगे और अकूत संपत्ति माफियाओं ने हासिल की।

    कुछ जनप्रतिनिधियों ने आवाज उठाई थी लेकिन धनाभाव के कारण या माफिया को सत्ता का संरक्षण मिलने के कारण बहुत विलंब से प्रतिबंध लगा। मैं स्वयं अनेकों बार ऑक्सफैम,पर्यावरणविद सुंदरलाल बहुगुणा जी आदि के साथ पर्यावरण संरक्षण के लिए छात्र जीवन से ही प्रयास करता रहा। छात्र होने के नाते कालम के कोने पर ही रहा लेकिन अपनी पीड़ा को बयां करता रहा।
    60 और 70 के दशक में माफियाओं के द्वारा जंगलों को काट कर हरे पेड़ों की बलि चढ़ाई गई और कोयला बनाकर बेचा गया। फल पट्टी के नाम पर लूट हुई। पूर्व सैनिकों, भूमिहीनों, अनुसूचित वर्ग के लोेगों को प्लॉट आवंटित किए जाने थे लेकिन उसका उल्टा हुआ।

    प्रशासनिक अधिकारियों से लेकर राजनेताओं तक की लूट मच गई। आज मसूरी फल पट्टी केवल कागजों में है जबकि यह अब होटल और रिपोर्ट पट्टी के नाम से जानी जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। बड़े -बड़े होटल और रेस्तरां यहां बन चुके हैं। निर्धन, अनुसूचित जाति के लोगों, पूर्व सैनिकों और गरीब लोगों का हिस्सा भी यह लोग खा गए। लेकिन पीड़ा कैसे बयां करें ! खाने वाले तो सब शरमाएदार हैं। उन्हीं की तूती आजादी के बाद भी बोलती रही है। काले अंग्रेजों की करतूतें गोरे अंग्रेजों से कम नहीं बल्कि ज्यादा रही है। हमारे प्राकृतिक अधिकार, पुश्तैनी जगह -जमीन, हमारे आर्थिक संसाधन, प्राकृतिक और जैविक खेती, हर एक पर डाका डाला गया है। कुछ समय तक पर्यावरणविद इस अलख को जगाए रहते हैं लेकिन बाद में वह भी माफियाओं की शरण में चले जाते हैं या त्रासदी का जीवन जी कर अल्पकाल में ही स्वर्ग सिधार जाते हैं। जिनकी हम यदा-कदा केवल पर्यावरण के नाम पर जयन्ति मना लेते हैं और बुतपरस्ति का प्रमाण देकर अपने को कृतार्थ मानते हैं।

    हमने आजादी पायी। पृथक उत्तराखंड राज्य की मांग की थी कि हम एक व्यवस्थित जीवन जी सकें। प्रत्येक प्रकार की गुलामी से मुक्त हों। शांति और सुरक्षित जीवन जिएं। भाषणों में देश सिमट कर रह चुका है। फोटोग्राफी, फूल मालाएं, शानदार मंच, हमारी पहचान बन चुके हैं। आम जनमानस चतुर और कुशल राजनीतिज्ञ, ठेकेदारों और धन्नाओं के जाल में फंस चुका है। मजबूर हैं ! कर भी क्या सकते हैं ? गांधी जी के सपनों का संसार धूमिल पड़ता जा रहा है। नेताजी सुभाष चंद्र बोस की कुर्बानी, भगत सिंह का बलिदान, श्रीदेव सुमन का प्राणोत्सर्ग या हमारे वीर बलिदानियों का त्याग निर्धन वर्ग के लिए केवल कोरी बात रह चुकी हैं।

    आपदा ना आए तब भी बडों की मौज है यदि आपदा आ जाए तो मौज है। ऑल वेदर रोड कई दिनों से बंद है। जगह-जगह हजारों टन बोल्र्डर गिरे हुए हैं लेकिन वह बेश कीमती पत्थर कहां समा रहे हैं ? कुछ पता नहीं। आंशिक रूप से दिखाने के लिए कुछ का उपयोग हो जाएगा। बाकी सब माफियाओं के पेट में समा जाएगा। हमें प्राकृतिक आपदाओं को चुनौती देनी है, दैवी आपदाओं से बचना है तो हमें शुचिता पूर्ण जीवन जीने की चाह रखनी होगी। देवभूमि के अनुुरूप जीवनयापन करने के लिए कर्तव्यपरायणता और त्याग की भावना से कार्य करना पड़ेगा तभी हम इस प्रकार की परेशानियों से मुक्त हो सकेंगे। पहाड़ी क्षेत्रों हों या मैदान। हर जगह सुनियोजित विकास होना चाहिए। किसी भी निर्माण कार्य से पहले सुसंगत मलबे की निकासी और समाधान के लिए योजना बनाई नहीं चाहिए और प्रकृति के हर अवयव का आदर करना चाहिए। जिससे हम इन आपदाओं से उबर सकते हैं। इसलिए जीवन अलभ्य है यह दुर्भाग्य नहीं है। भारत माता की जय के साथ हमारा कर्म क्षेत्र भी अनुकूल और सुसंगत होना चाहिए। इसी में हमारा कल्याण है।  इसलिए आपदा के बाद नहीं बल्कि आपदा से पहले योजनाबद्ध तरीके से कार्य योजना बनानी चाहिए। उसी के अनुरूप क्रियान्वयन करना चाहिए ताकि हम दैवीय आपदाओं को न्यूूनतम कर सकें।

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